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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आत्मा रागी द्वेषी होकर अनादि अविद्यासे परिणमता है, तब परद्रव्यसंवन्धी सुख दुःख मान लेता है और कर्म फल देता है ऐसा कहते हैं। ___ आगें शिप्यने जो यह प्रश्न किया है उसका विशेष कथन किया जाता है सो पहिले यह कहते हैं कि कर्मयोग्य पुद्गल समस्त लोकमें भरपूर होकर तिष्ठे हुये हैं ।
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । सुहमेहिं वाद।हिं य गंताणतेहिं विविहेहिं ॥ ६४ ॥
संस्कृतछाया. अवगाढगाढनिचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः ।
सूक्ष्मैर्वादरैश्वानन्तानन्तैर्विविधैः ।। ६४ ॥ पदार्थ-लोकः] समस्त त्रैलोक्य [सर्वतः] सब जगहँ [पुद्गलकायैः] पुद्गलस्कन्धोंके द्वारा [अवगाढगाढनिचितः] अतिशय भरपूर गाढा भराहुवा है । जैसे कज्जलकी कज्जलदानी अंजनसे भरी होती है उसी प्रकार सर्वत्र पुद्गलोंसे लोक भरपूर तिष्ठता है. कैसे हैं पुद्गल ? [सूक्ष्मैः ] अतिशय सूक्षम हैं [च] तथा [वादरैः] अतिशय वादर हैं । फिर कैसे हैं पुद्गल ? [अनन्तानन्तैः] अपरिमाणसंख्या लियेहुये हैं। फिर कैसे हैं पुद्गल ? [हि विविधैः] निश्चय करके कर्म परमाणु स्कंध आदि अनेक प्रकारके हैं । ___ आगे कहते हैं कि अन्यसे कर्मकी उत्पत्ति नहीं है जव रागादि भावोंसे आत्मा परिणमता है तब पुद्गलका वन्ध होता है ।
अत्ता कुणदि सहावं तत्थगदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा ।। ६५ ॥
संस्कृतछाया. आत्मा करोति स्वभावं तत्रगताः पुद्गलाः स्वभावैः ।
गच्छन्ति कर्मभावमन्योन्यावगाहावगाढाः ।। ६५ ।। पदार्थ-[आत्मा] जीव [स्वभावं] अशुद्ध रागादि विभाव परिणामोंको [करोति] करता है [तत्रगताः पुदला:] जहां जीवद्रव्य तिष्ठता है तहां वर्गणारूप पुद्गल तिष्ठते हैं ते [ स्वभावः] अपने परिणामोंके द्वारा [कर्मभावं] ज्ञानावरणादि अष्टकर्मरूप भावको [गच्छन्ति ] प्राप्त होते हैं । कैसे हैं वे पुद्गल ? [अन्योन्यावगाहावगाढाः] परस्पर एक क्षेत्र अवगाहना करके अतिशय गाढे भर रहे हैं।
भावार्थ--यह आत्मा संसार अवस्थामें अनादि कालसे लेकर परद्रव्यके सम्बन्धसे अशुद्ध चेतनात्मक भावोंसे परिणमता है. वही आत्मा जब मोहरागद्वेषरूप अपने विभाव भावोंसे परिणता है, तब इन भावोंका निमित्त पाकर पुद्गल अपनी ही उपादान शक्तिसे अष्टप्रकार कर्मभावोंसे परिणमता है-तत्पश्चात् जीवके प्रदेशोंमें परस्पर एक क्षेत्रावगाह