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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। आगें पृथिवीकायादि पांच थावरके भेद दिखाते हैं.
पुढवी य उद्गलगणी वाउवणप्फदिजीवसंसिदा काया(?)। देंति खलु सोहबहुलं फासं वहुगा वि ते तेसिं ॥ ११०॥
संस्कृतछाया. पृथिवी चोदकमग्निर्वायुवनस्पती जीवसंश्रिताः कायाः ।
ददति खलु सोहबहुलं स्पर्श बहुका अपि ते तेषां ॥ ११० ॥ पदार्थ-[पृथिवी ] पृथिवीकाय [च] और [उदकम् ] जलकाय [अग्निः] अग्निकाय [वायुवनस्पती] वायु और वनस्पतिकाय [कायाः] ये पांच स्थावरकायके भेद जानने [ते] वे [जीवसंश्रिताः] एकेन्द्रियजीव करके सहित हैं. [वहुकाः अपि ] यद्यपि अनेक २ अवान्तर भेदोंसे बहुत जात हैं ऐसे जो काया सो शरीरभेदसे [खलु] निश्चयसे [तेपां] उन जीवोंको [मोहबहुलं ] मोहगर्भित बहुत परद्रव्योंमें रागभाव उपजाते हैं [ स्पर्श ] स्पर्शनेन्द्रियके विषयको [ददति ] देते हैं।
भावार्थ-ये पांच प्रकार थावरकाय कर्मके सम्बन्धसे जीवोंके आश्रित हैं। इनमें गर्भित अनेक जातिभेद हैं. ये सब एक स्पर्शनेन्द्रियकरके मोहकर्मके उदयसे कर्मफल चेतनारूप सुखदुखरूप फलको भोगते हैं । एक कायके आधीन होकर जीव अनेक अवस्थाको प्राप्त होता है। आगें पृथिवीकायादि पांच थावरोंको एकेंद्रियजातिका नियम करते हैं.
ति स्थावरतणुजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा । मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया ॥ १११ ॥
संस्कृतछाया. ' त्रयः स्थावरतनुयोगादनिलानलकायिकाश्च तेषु त्रसाः ।
मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया ज्ञेयाः ॥ १११ ॥ पदार्थ-[स्थावरतनुयोगात् ] स्थावरनाम कर्मके उदयसे [त्रयः जीवाः] पृथिवी जल वनस्पति ये तीन प्रकारके जीव [एकेन्द्रियाः] एकेन्द्रिय [ज्ञेयाः] जानने [च] और तेपु] उन पांच स्थावरोंमें [अनिलानिलकायिकाः] वायुकाय और अग्निकाय ये दो प्रकारके जीव यद्यपि [त्रसाः] चलते हैं तथापि स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर एकेन्द्रिय ही कहे जाते हैं. कैसे हैं ये एकेन्द्रिय ? [मनःपरिणामविरहिताः] मनोयोगरहित हैं।
एदे जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया। मणपरिणामविरहिदा जीवा एगेंदिया भणिया ॥ ११२ ॥
संस्कृतछाया. एते जीवनिकायाः पञ्चविधाः पृथिवीकायिकाद्याः । मनःपरिणामविरहिता जीवा एकेन्द्रिया भणिताः ॥ ११२ ॥ ..