Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 87
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। संस्कृतछाया. संस्थानानि संघाताः वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दाश्च । पुद्गलद्रव्यप्रभवा भवन्ति गुणाः पर्यायाश्च बहवः ॥ १२६ ।। अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशव्दं । जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानं ।। १२७ ।। पदार्थ- [संस्थानानि ] जीवपुद्गलके संयोगमें जो समचतुरस्रादि पट् संस्थान हैं और [संघाताः] वज्रवृपभ नाराच आदि संहनन हैं [च] और [वर्णरसस्पर्शगन्धशब्दाः ] वर्ण ५ रस ५ स्पर्श ८ गन्ध २ और शब्दादि [ पुद्गलद्रव्यप्रभवाः] पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न [वहवः ] बहुत जातिके [गुणाः] सहभू वर्णादि गुण [च] और [पर्यायाः] संस्थानादि पर्याय [भवन्ति ] होते हैं. और [जीवं ] जीवद्रव्यको [अरसं] रसगुणरहित, [अरूपं] वर्णरहित [अगन्धं] गन्धरहित [अव्यक्तं] अप्रगट [चेतनागुणं] ज्ञानदर्शन गुणवाला [अशब्दं] शब्दपर्यायरहित [अलिङ्गग्रहणं] इन्द्रियादि चिह्नोंसे ग्रहण करने में नहिं आवै ऐसा [अनिर्दिष्टसंस्थानं] निराकार [जानीहि] जान । __ भावार्थ-अनादि मिथ्यावासनासे यह आत्मद्रव्य पुद्गलके संबंधसे विभावके कारण औरका और प्रतिभासा है उस चित् और जड़ग्रन्थिके भेद दिखानेकेलिये वीतराग सर्वज्ञने पुद्गल जीवका लक्षणभेद कहा है उस भेदको जो जीव जान करके भेदविज्ञानी अनुभवी होते हैं वे मोक्षमार्गको साध निराकुल सुखके भोक्ता होते हैं. इस कारण जीवपुद्गलका लक्षणभेद दिखाया जाता है कि जो आत्मशरीर इन दोनोंके संबन्ध स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणात्मक है शब्द संस्थान संहननादि मूर्तपर्यायरूपसे परिणत है और इन्द्रियग्रहणयोग्य है सो सब पुद्गलद्रव्य है । और जिसमें स्पर्शरसगन्धवर्ण गुण नहीं, शब्दतें अतीत आकाररहित हैं, अन्तर्गुप्त अतीन्द्रिय जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य नहीं; चेतनागुणमयी, मूर्तीक अमूर्तीक. अजीव पदार्थोंसे भिन्न अमूर्त वस्तु मात्र है वह ही जीव पदार्थ जानना । इसप्रकार जीव अजीव पदार्थोंमें लक्षणभेद है। ___ आगें इन ही जीवअजीव पदार्थोके संयोगसे उत्पन्न जो सप्त पदार्थ हैं तिनके कथननिमित्त परिभ्रमणरूप कर्मचक्रका स्वरूप कहा जाता है । जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगद्स्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो च दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्वालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा॥१३०॥

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