Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s):
Publisher: ZZZ Unknown
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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारंः ।
संस्कृतछाया. मूर्तः स्पृशति मूर्त मूर्तो मूर्तेन बन्धमनुभवति ।
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते ॥ १३४ ॥ पदार्थ- [मृतः] बंधपर्यायकी अपेक्षा मूर्तीक संसारी जीवके कर्मपुंज [मूर्त] मूर्तीक कर्मको [स्पृशति] स्पर्शन करता है इसकारण [सूर्तः ] मूर्तीक कर्मपिण्ड जो है सो [सून] मूर्तीक कर्मपिण्डसे [वन्धं] परस्पर बन्धावस्थाको [अनुभवति ] प्राप्त होता है। [मूर्तिविरहितः ] मूर्तिभावसे रहित [जीवः ] जीव [तानि] उन कर्मों के साथ वन्धावस्थावोंको [गाहति] प्राप्त होता है । [तैः ] उन ही कर्मोंसे [जीवः] आत्मा जो है सो [अवगाह्यते] एक क्षेत्रावगाह कर बंधता है। ___ भावार्थ-इस संसारी जीवके अनादि कालसे लेकर मूर्तीक कर्मोंसे सम्बन्ध है. वे कर्म स्पर्शरसगन्धवर्णमयी हैं । इससे आगामी मूर्तकर्मोंसे अपने स्निग्धरूखे गुणोंके द्वारा वन्धता है, इसकारण मूर्तीक कसे मूर्तीकका बन्ध होता है। फिर निश्चयनयकी अपेक्षा जीव अमूर्तीक है. अनादिकर्मसंयोगसे रागद्वेषादिक भावोंसे स्निग्धरूक्षभावपरिणया हुवा नवीन कर्मपुंजका आस्रव करता है. उस कर्मसे पूर्ववद्धकर्मकी अपेक्षा बन्ध अवस्थाको प्राप्त होता है । यह आपसमें जीवकर्मका बन्ध दिखाया-इसहीप्रकार अमूर्तीक आत्माको मूर्तीकपुण्यपापसे कथंचित्प्रकार वन्धका विरोध नहीं है । इसप्रकार पुण्यपापका कथन पूर्ण हुवा । अव आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते हैं.
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्ते पत्थि कलुस्सं पुण्णं जीवस्त आलवदि ॥ १३५ ॥
संस्कृतछाया. रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः ।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति ॥ १३५॥ पदार्थ-[यस्य] जिस जीवके [रागः] प्रीतिभाव [प्रशस्तः] भला है [च] और [अनुकम्पासंश्रितः] अनुकम्पाके आश्रित अर्थात् दयारूप [परिणामः] भाव है तथा [चित्ते] चित्तमें [कालुप्यं ] मलीनभाव [नास्ति नहीं है [तस्य जीवस्य ] उस जीवके [पुण्यं ] पुण्य [आस्रवति] आता है । ___ भावार्थ-शुभ परिणाम तीन प्रकारके हैं अर्थात्-प्रशस्तराग १ अनुकम्पा २ और चित्तप्रसाद ३ ये तीनों प्रकारके शुभपरिणाम द्रव्यपुण्यप्रकृतियोंको निमित्त मात्र है इसकारण जो शुभभाव हैं वे तो भावास्रव हैं. तत्पश्चात् उन भावोंके निमित्तसे शुभयोगहारकर जो शुभ वर्गणायं आती हैं वे द्रव्यपुण्यात्रव हैं ।

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