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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पदार्थ-धर्मद्रव्य अकेला आप ही किसी कालमें भी गतिकारण अवस्थाको नहिं धरता है और अधर्मद्रव्य भी अकेला किसी कालमें भी स्थिति कारण अवस्थाको नहिं धरता किंतु गति स्थितिपरणतिके कारण हैं । और जो ये दोनों धर्म अधर्म द्रव्य उपादानरूप मुख्यकारण गंतिस्थितिके होते तो [येपां] जिन जीवपुद्गलोंका [गमनं] चलना [स्थानं] स्थिर होना [विद्यते] प्रवर्ते है [पुनः] फिर [तेपां] उन ही द्रव्योंका [एव ] निश्चय करकें चलना थिर होना [सम्भवति] होता है । जो धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण होय कर जबरदस्तीसे जीवपुद्गलोंको चलाते और स्थिर करते तो सदाकाल जो चलते वे सदा चलते ही रहते और स्थिर होते वे सदा स्थिर ही रहते, इसकारण धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण नहीं हैं। [ते] वे जीवपुद्गल [स्वकपरिणामैः तु] अपने गतिस्थितिपरिणामके उपादानकारणरूपसे तो [ गमनं ] चलने [च] और [स्थानं ] स्थिर होनेको [कुर्वन्ति करते हैं । इसकारण यह बात सिद्ध हुई कि धर्म अधर्म द्रव्य मुख्य कारण नहीं हैं. व्यवहार नयकी अपेक्षा उदासीन अवस्थासे निमित्तकारण है । निश्चय करके जीव पुद्गलोंकी गति स्थितिको उपादानकारण अपने ही परिणाम हैं।
यह धर्मअधर्मास्तिकायका व्याख्यान पूर्ण हुवा.
आगे आकाशद्रव्यास्तिकायका व्याख्यान किया जाता है.
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तय पुग्गलाणं च ॥ जं देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आयासं ॥९॥
संस्कृतछाया. सर्वेषां जीवानां शेपाणां तथैव पुद्गलानां च ।
यद्ददाति विवरमखिलं तल्लोके भवत्याकाशं ॥ ९०॥ पदार्थ-[सर्वेषां] समस्त [जीवानां] जीवोंको [तथैव ] तैसें ही [शेपाणां] धर्म अधर्म काल इन तीन द्रव्योंको [च] और [पुद्गलानां] पुद्गलोंको [यत् ] जो । [अखिलं] समस्त [विवरं] जगहँको [ददाति] देता है [तत्] वह द्रव्य [लोके] इस लोकमें [आकाशं] आकाशद्रव्य [भवति] होता है।
भावार्थ-इस लोकमें पांच द्रव्योंको जो अवकाश देता है उसको आकाश कहते हैं । आगें लोकसे जो बाहर जो अलोकाकाश है उसका स्वरूप कहते हैं ।
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥ ९१ ॥
संस्कृतछाया. जीवाः पुद्गलकायाः धर्माधर्मों च लोकतोऽनन्ये । ततोऽनन्यदन्यदाकाशमन्तव्यतिरिक्तं ॥ ९१ ॥