Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 71
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। ৩৭ आगें मूर्तअमूर्तका लक्षण कहते हैं। जे खल इन्दियगेज्झा विषया जीवहिं हुति ले मुत्ता। सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादिद्यदि ॥ ९९ ॥ संस्कृतछाया. ये खलु इन्द्रियग्राह्या विपया जीवैभवन्ति ते मूर्त्ताः । शेपं भवत्यमूर्त चित्तमुभयं समाददति ॥ ९९ ॥ पदार्थ-ये] जो [जीवैः] जीवोंकरके [ खलु] निश्चयसे [इन्द्रियग्राह्याः] इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण करने योग्य [विपयाः] पुद्गलजनित पदार्थ हैं [ते] वे [ मूर्त्ताः] मूर्तीक [भवन्ति] होते हैं [ शेष ] पुद्गलजनित पदार्थोंसे जो भिन्न है सो [अमूर्त ] अमूर्तीक [ भवति] होता है अर्थात्-इस लोकमें जो स्पर्श रस गंध वर्णवन्त पदार्थ स्पर्शन जीभ नाशिका नेत्र इन चारों इन्द्रियों से ग्रहण किये जाय और जो कर्णेद्रियद्वारा शब्दाकार परिणत पदार्थ ग्रहे जांय और जो किसी कालमें स्थूल स्कंधभावपरिणये हैं पुद्गल और किसही काल सूक्ष्म भावपरिणये हैं पुद्गलस्कंध और किस ही काल परमाणुरूप परणये जे पुद्गल, वे सब ही मूर्तीक कहाते हैं । कोईएक सूक्ष्मभाव परिणतिरूप पुद्गलस्कन्ध अथवा परमाणु यद्यपि इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेमें नहिं आते तथापि इन पुद्गलोंमें ऐसी शक्ति है कि यदि ये स्थूलताको धेरै तो इन्द्रियग्रहण करने योग्य होते हैं अतएव कैसी भी सूक्ष्मताको धारण करो सवको इन्द्रियग्राह्य ही कहे जाते हैं । और जीव धर्म अधर्म आकाश काल ये पांच पदार्थ हैं ते स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणसे रहित हैं क्योंकि इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण करने में नहिं आते इसीकारण इनको अमूर्तीक कहते हैं। [चित्तं] मनइन्द्रिय [उभयं] मूर्तीक अमूर्तीक दोनों प्रकारके पदार्थोंको [समाददति] ग्रहण करता है । अर्थात् मन अपने विचारसे निश्चित पदार्थको जानता है । मन जब पदार्थोंको ग्रहण करता है तब पदार्थों में नहीं जाता किन्तु आप ही संकल्परूप होय वस्तुको जानता है । मतिश्रुतज्ञानका मन ही साधन है इसकारण मन अपने विचारोंसे मूर्त अमूर्त दोनों प्रकारके पदार्थोंका ज्ञाता है । यह चूलिकारूप संक्षिप्त व्याख्यान पूर्ण हुवा. ___ आगें कालद्रव्यका व्याख्यान किया जाता है सो पहिले ही व्यवहार और निश्चयकालका स्वरूप दिखाया जाता है। कालो परिणामभवो परिणामो द्व्वकालसंभूदो।। दोण्हं एस सहावो कालो खणभंगुरो णियदो ॥१०॥ संस्कृतछाया. काल: परिणामभवः परिणामो द्रव्यकालसंभूतः । द्वयोरेप स्वभावः कालः क्षणभङ्गुरो नियतः ।। १०० ।।

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