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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। पदार्थ-[यः] जो पुरुष [एतदर्थ ] इस ग्रन्थके रहस्य शुद्धात्म पदार्थको [ज्ञात्वा] जानकर [तदनुगमनोद्यतः] उस ही आत्मपदार्थमें प्रवीन होनेको उद्यमी [भवति] होता है [स जीवः] वह भेद विज्ञानी जीव [निहतमोहः ] नष्ट किया है दर्शनमोह जिसने [प्रशमितरागद्वेपः] शान्त होकर विला गये हैं रागद्वेप जिसमेंसे [ हतपरापरः] नष्ट किया है पूर्वपर बंध जिसने ऐसा होकर मोक्षपदका अनुभवी होता है। __भावार्थ-यह संसारी जीव अनादि अविद्याके प्रभावसे परभावोंमें आत्मस्वरूपत्व जानता है अज्ञानी होकर रागद्वेषभावरूप परिणमता है । जब काललब्धि पाय सर्वज्ञ वीतरागके वचनोंको अवधारन करता है तब इसके मिथ्यात्वका नाश होता है । भेदविज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगट होती है । तत्पश्चात् चारित्र मोह भी नष्ट होता है। तव सर्वथा संकल्पविकल्पोंके अभावसे स्वरूपविषै एकाग्रतासे लीन होता है । आगामी बंधका भी निरोध हो जाता है पिछला कर्मबन्ध अपना रस देकर खिर जाता है तब वहही जीव निर्वन्ध अवस्थाको धारणपूर्वक मुक्त होकर अनन्तकालपर्यन्त स्वरूपगुप्त अनन्तसुखका भोक्ता होता है। इति श्रीपंचास्तिकायसमयसार ग्रन्थमें षद्रव्यपंचास्तिकायका व्याख्याननामक
प्रथमश्रुतस्कन्ध पूर्ण हुवा।। पूर्वकथनमें केवल मात्र शुद्ध तत्त्वका कथन किया है । अब नव पदार्थके भेद कथन करके मोक्षमार्ग कहते हैं जिसमें प्रथम ही भगवान्की स्तुति करते हैं क्योंकि जिसका वचन प्रमाण है सो पुरुष प्रमाण है और पुरुषप्रमाणसे वचनकी प्रमाणता है ।
अभिवंदिऊण सिरसा अपुणभवकारणं महावीरं । तेसिं पयत्थभंगं मग्गं मोक्खस्स वोच्छामि ॥ १०५ ॥
संस्कृतछाया. अभिवन्द्य शिरसा अपुनर्भवकारणं महावीरं । . तेषां पदार्थभङ्ग मार्ग मोक्षस्य वक्ष्यामि ॥ १०५ ॥
पदार्थ-मैं कुंदकुंदाचार्य जो हूं सो [अपुनर्भवकारणं] मोक्षके कारणभूत [महावीरं] वर्द्धमान तीर्थकर भगवान्को [शिरसा] मस्तकद्वारा [ अभिवन्ध] नमस्कार करकें [ मोक्षस्य मार्ग ] मोक्षके मार्ग अर्थात् कारणस्वरूप [तेषां] उन षड्द्रव्योंके [पदार्थभङ्ग] नवपदार्थरूप भेदको [वक्ष्यामि ] कहूंगा ।
भावार्थ-यह जो वर्तमान पंचमकाल है उसमें धर्मतीर्थके कर्ता भगवान् परम भट्टारक देवाधिदेव श्रीवर्द्धमानखामीकी मोक्षमार्गकी साधनहारी स्तुति करके मोक्षमार्गके दिखानेवाले पद्रव्योंके विकल्प नवपदार्थरूप भेद दिखानेयोग्य है, ऐसी श्रीकुंदकुंदस्वामीने प्रतिज्ञा कीनी ।