Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 62
________________ ६६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् है [स्पृष्टः] अपने प्रर्दशोंके स्पर्शसे अखंडित है [पृथुलः ] स्वभावहीसे सब जगहँ विस्तृत है। और [असंख्यातप्रदेशः] यद्यपि निश्चय नयसे एक अखंडित द्रव्य है तथापि व्यवहारसे असंख्यातप्रदेशी है। भावार्थ-धर्मद्रव्य स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणोंसे रहित है इसकारण अमूर्तीक है क्योंकि स्पर्श रस गन्ध वर्णवती वस्तु सिद्धांतमें मूर्तीक ही है । ये चार गुण जिसमें नहिं होय उसीका नाम अमूर्तीक है । इस धर्मद्रव्यमें शब्द भी नहीं है क्योंकि शब्द भी मूर्तीक होते हैं इसकारण शब्द पर्यायसे रहित है । लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी है । यद्यपि अखंडद्रव्य है परंतु भेद दिखानेकेलिये परमाणुवोंद्वारा असंख्यात प्रदेशी गिना जाता है । आगें फिर भी धर्मद्रव्यका स्वरूप कुछ विशेषताकर दिखाया जाता है। अगुरुगलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिचं ॥ गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकजं ॥ ८४ ॥ संस्कृतछाया. अगुरुलघुकैः सदा तैः अनन्तैः परिणतः नित्यः । गतिक्रियायुक्तानां कारणभूतः स्वयमकार्यः ॥ ८४ ॥ पदार्थ-[सदा] सदाकाल [तैः] उन द्रव्योंके अस्तित्व करनेहारे [अगुरुलघुकैः] अगुरु लघु नामक [अनन्तैः] अनन्त गुणोंसे [परिणतः] समय समयमें परिणमता है । फिर कैसा है ? [नित्यः] टंकोत्कीर्ण अविनाशी वस्तु है । फिर कैसा है ? [गतिक्रियायुक्तानां] गमन अवस्थाकर सहित जो जीव पुद्गल हैं तिनको [कारणभूतं] निमित्तकारण है । फिर कैसा है ? [स्वयमकार्यः] किसीसे उत्पन्न नहिं हुवा है । भावार्थ-धर्मद्रव्य सदा अविनाशी टंकोत्कीर्ण वस्तु है । यद्यपि अपने अगुरुलघु गुणसे पट्गुणी हानिवृद्धिरूप परिणमता है, परिणामसे उत्पादव्ययसंयुक्त है तथापि अपने धौव्य स्वरूपसे चलायमान नहिं होता क्योंकि द्रव्य वही है जो उपजै विनशै थिर रहै । इसकारण यह धर्मद्रव्य अपने ही स्वभावको परिणये जो पुद्गल तिनको उदासीन अवस्थासे निमित्तमात्र गतिको कारणभूत है। और यह अपनी अवस्थासे अनादि अनंत है, इस कारण कार्यरूप नही हैं । कार्य उसे कहते हैं जो किसीसे उपज्या होय । गतिको निमित्तपाय सहायी है, इसलिये यह धर्मद्रव्य कारणरूप है किन्तु कार्य नहीं है । आगे धर्मद्रव्य गतिको निमित्तमात्र सहाय किस दृष्टान्तकर है सो दिखाया जाता है । उद्यं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए॥ तह जीवपुग्गलाणं धम्मं व्वं वियाणेहि ॥ ८५॥ उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं भवति ।। तथा जीवपुद्गलानां धर्म द्रव्यं विजानीहि ॥ ८५ ॥ संस्कृतछाया.

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