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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः। कादि भावकोका निमित्त [भवति] होता है। [तु] और [तेषां ] तिन द्रव्यकर्म भावकर्मोका [खलु] निश्चय करकं [कर्ता न ] आपसमें द्रव्य कर्ता नहीं है. न पुद्गल भावकर्मका कर्ता है और न जीव द्रव्यकर्मका की है [तु] और वे द्रव्यकर्म भावकर्म [कर्तारं विना] कर्ताके विना [नैव] निश्चय करके नहीं [भूताः] हुये हैं अर्थात् वे द्रव्यभावकर्म कर्ता विना भी नहीं हुये ।
भावार्थ-निश्चय नयसे जीवद्रव्य अपने चिदात्मक भावकाँका कर्ता है-और पुद्गलद्रव्य भी निश्चयकरके अपने द्रव्यकर्मका कर्ता है. व्यवहारनयकी अपेक्षा जीव द्रव्यकर्मके विभाव भावके कर्ता हैं । और द्रव्यकर्म जीवके विभावभावोंके कर्ता हैं. इस प्रकार उपादान निमित्त कारणके भेदसे जीवकर्मका कर्तृत्व निश्चय व्यवहार नयोंकर आगम प्रमाणसे जान लेना । शिप्यने जो पूर्व गाथामें प्रश्न किया था गुरुने इसप्रकार उसका समाधान किया है। ___ आगे फिर भी दृढ कथनके निमित्त आगमप्रमाण दिखाते हैं कि निश्चयकरके जीवद्रव्य अपने भावकर्मोका ही कर्ता है पुद्गलकोंका कर्ता नहीं है ।
कुव्वं सगं सहावं अत्ता कत्ता समस्त भावस्स। ण हि पोबलकामाणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ ६१ ॥
संस्कृतछाया. कुर्वन स्वकं स्वभावं आत्मा कर्ता स्वकस्य भावस्य ।
न हि पुद्गलकर्मणामिति जिनवचनं ज्ञातव्यम् ॥ ६१ ॥ पदार्थ- [स्वकं ] आत्मीक [स्वभावं] परिणामको [कुर्वन् ] करता हुवा [आत्मा] जीवद्रव्य [स्वकस्य ] अपने [भावस्य] परिणामोंका [कर्ता] करनहारा होता है । [पुद्गलकर्मणां] पुद्गलमयी द्रव्यकर्मोंका कर्ता [हि] निश्चय करके [न] नहीं है [इति] इस प्रकार [जिनवचनं ] जिनेन्द्रभगवान्की वाणी [ ज्ञातव्यं ] जाननी ।
भावार्थ-आत्मा निश्चयकरके अपने भावोंका कर्ता है परद्रव्यका कर्त्ता नहीं है।
आगे निश्चयनयसे उपादानकारणकी अपेक्षा कर्म अपने स्वरूपका कर्ता है. ऐसा का करते हैं।
कम्मं पि सगं कुव्वदि लेण सहावेण सम्ममप्पाणं । जीवो वि य तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ॥ ६२॥
संस्कृतछाया. कर्मापि स्वकं करोति स्वेन स्वभावेन सम्यगात्मानं ।
जीवोऽपि च ताशकः कर्मस्वभावेन भावेन ॥ ६२ ॥ पदार्थ-[कर्म] कर्मरूप परिणये पुद्गलस्कन्ध [अपि] निश्चयसे [स्वेन स्वभावेन] अपने स्वभावसे [सम्यक् ] यथार्थ जैसेका तैसा [खकं] अपने [आत्मानं] स्वरूपको