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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः।
३९ दूसरा दोष यह है कि-द्रव्यका अभाव हो जायगा. क्योंकि द्रव्य वह कहलाता है जो गुणोंका समूह हो, इसलिये द्रव्यसे गुण जुदा होय तो द्रव्यका अभाव होता है. इसकारण सर्वथा प्रकार गुणगुणीका भेद नहीं है, कथंचित्प्रकारसे भेद जानना।
अविभत्तमणण्णत्तं व्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं । णिच्छंति णिच्चयहूं तस्विवरीदं हि वा तेसिं ॥ ४५ ॥
संस्कृतछाया. अविभक्तमनन्यत्वं द्रव्यगुणानां विभक्तमन्यत्वं ।
नेच्छन्ति निश्चयज्ञास्तद्विपरीतं हि वा तेषां ।। ४५ ।। पदार्थ-[द्रव्यगुणानां] द्रव्य और गुणोंका [अनन्यवं ] एक भाव है सो [अविभक्तं ] प्रदेशभेदसे रहित है। द्रव्यके नाश होनेसे गुणका अभाव और गुणोंके नाश होनेसे द्रव्यका अभाव ऐसा एकभाव है. अर्थात् जैसे एक परमाणुकी अपने एक प्रदेशसे पृथक्ता नहीं है और जैसे उसही परमाणुमें स्पर्श रस गन्ध वर्ण गुणोंकी पृथक्ता नहीं है तैसें ही समस्त द्रव्योंमें प्रदेशभेदरहित गुणपर्यायका अभेद भाव जानना । ऐसी प्रदेशभेदरहित द्रव्यगुणोंकी एकता आचार्यजीने अंगीकारकी है और [निश्चयज्ञाः] गुणगुणीमें कथंचित् भेदसे निश्चयस्वरूपके जाननहारे हैं ते [अन्यत्वं] 'द्रव्यगुणोंमें भेदभाव [विभक्तं] प्रदेशभेदसे रहित [न इच्छंति ] नहिं चाहते हैं । भावार्थ-द्रव्य और गुणोंमें संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजनादिसे यद्यपि भेद है तथापि ऐसा भेद नहीं है कि जिससे प्रदेशोंकी पृथक्ता होय । अतएव यह बात सिद्ध हुई कि गुणगुणीमें वस्तुरूप विचारसे प्रदेशोंकी एकतासे कुछ भी भिन्नता नहीं है. संज्ञामात्रसे भिन्नता है । एक द्रव्यमें भेद अभेद इसी प्रकार जानना [वा] अथवा [हि] निश्चयसे [तेषां] उन द्रव्यगुणोंके [तद्विपरीतं] उस पूर्वोक्त प्रकार भेद अभेदसे जो और प्रकार भेद अभेद है उसको [न इच्छन्ति ] जो तत्त्वम्वरूपके वेत्ता हैं ते वस्तुमें नहिं मानते ।
भावार्थ-वस्तुमें कथंचित् गुणगुणीका जो भेद अभेद है, उसका वस्तुको साधनके वास्तै मानते हैं और जो उपचारमात्र पदार्थों में भेद अभेद लोकव्यवहारसे है उसको आचार्य नहिं मानते क्योंकि लोकव्यवहारसे कुछ वस्तुका स्वरूप सधता नहीं है. सो दिखाया जाता है । जैसे-लोकव्यवहारसे विन्ध्याचल और हिमाचलमें बडा भेद कहा जाता है क्योंकि हिमाचल कहीं है और विन्ध्याचल कहीं है. इसको नाम भेद कहते हैं तथा मिले हुये दुग्धजलको अभेद कहते हैं परमार्थसे जल जुदा है दुग्ध जुदा है । लोकव्यवहारसे एक माना जाता है क्योंकि दुग्ध और जलमें प्रदेशोंकी ही पृथक्ता है । इसप्रकार लोकव्यवहार कथित गुणगुणीमें भेदाभेद नहिं माने जाय तो प्रदेशभेदरहित जो गुणगुणीमें कथंचित्प्रकार भेद अभेद परमार्थ दिखानेकेलिये कृपावन्त आचार्योने दिखाया है सो भले प्रकार जानना चाहिये