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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
४१ आगें भेद अभेद कथनका स्वरूप प्रगटकर दिखाया जाता है___णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाणिणं च दुविधेहिं । भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तचण्हू ॥४७॥
संस्कृतछाया. ज्ञानं धनं च करोति धनिनं यथा ज्ञानिनं च द्विविधाभ्यां ।
भणंति तथा पृथक्त्वमेकत्वं चापि तत्त्वज्ञाः ॥ ४७ ।। पदार्थ- [यथा] जैसें [धनं] द्रव्य सो [धनिनं] पुरुषको धनवान [करोति ] करता है अर्थात् धन जुदा है पुरुष जुदा है परन्तु धनके संवन्धसे पुरुष धनी वा धनवान् ऐसा नाम पाता है [च ] और [ज्ञानं ] चैतन्यगुण जो है सो [ज्ञानिनं ] आत्माको 'ज्ञानी' ऐसा नाम कहलाता है. ज्ञान और आत्माको प्रदेशभेदरहित एकता है । परन्तु गुणगुणीके कथनकी अपेक्षा ज्ञान गुणके द्वारा आत्मा 'ज्ञानी' ऐसा नाम धारण करता है [ तथा तैसें ही [द्विविधाभ्यां] इन दो प्रकारके भेदाभेद कथनद्वारा [ तत्त्वज्ञाः] वस्तुस्वरूपके जाननेवाले पुरुष हैं ते [पृथक्त्वं] प्रदेशभेदकी पृथकतासे जो संबंध है उसको पृथक्त्व कहते हैं. [च] और [अपि] निश्चयसे [ एकत्वं ] प्रदेशोंकी एकतासे संबंध है उसका नाम एकत्व है ऐसे दो भेदोंको [भणन्ति ] कहते हैं ।
भावार्थ-व्यवहार दो प्रकारका है. एक पृथक्त्व और एक एकत्व. जहांपर भिन्न द्रव्योंमें एकताका संबंध दिखाया जाय उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है. और एक वस्तुमें भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है. सो ये दोनों प्रकारका संबन्ध धन धनी ज्ञान ज्ञानीमें व्यपदेशादिक चार प्रकारसे दिखाया जाता है । धन जो है सो अपने नाम संस्थान संख्या और विषय इन चारों भेदोंसे जुदा हे-और पुरुष अपने नाम संस्थान संख्या विपयरूप चार भेदोंसे जुदा है। परन्तु धनके सम्बन्धसे पुरुष धनी कहलाता है. इसीको पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। ज्ञान और ज्ञानीमें एकता है परन्तु नाम संख्या संस्थान विषयोंसे ज्ञानका भेद किया जाता है । वस्तुम्वरूपको भली भाँति जाननेके कारण उस ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी नाम पाता है. इसको एकत्व व्यवहार कहते हैं। ये दो प्रकारका सम्बन्ध समस्त द्रव्योंमें चार प्रकारसे जानना। ___ आगें ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथाप्रकार जो भेद ही माना जाय तो बडा दोप आता है, ऐसा कथन करते हैं।
णाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदा दु अण्णमण्णस्स । दोहं अचेदात्तं पसजदि सम्म जिणावमदं ॥४८॥
ना।