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श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः ।
संस्कृतछाया. सर्वत्रास्ति जीवो न चैक एककाये एक्यस्थः ।
अध्यवसायविशिष्टश्चेष्टते मलिनो रजोमलैः ॥ ३४ ॥ पदार्थ-[जीवः] आत्मा है सो [ सर्वत्र ] संसार अवस्थामें क्रमवर्ती अनेक पर्यायोंमें सब जगह [अस्ति ] है । अर्थात्-जैसे एक शरीरमें आत्मा प्रवर्ते है तैसें ही जब और पर्यायान्तर धारण करता है, तब तहां भी तैसें ही प्रवर्ते है. इसलिये समस्त पर्यायोंकी परंपरासे वही जीव रहै है. नया कोई जीव उपजता नहीं [च ] और [ एककाये ] व्यवहारनयकी अपेक्षासे यद्यपि एक शरीरमें [एक्यस्थः] क्षीरनीरकी तरह मिलकर एक स्वरूप धरकर तिष्ठता है तथापि [ एकः न ] निश्चयनयकी अपेक्षा देहसें मिलकर एकमेक होता नही । निजस्वरूपसे जुदा ही रहता है । और वह ही जीव जब [अध्यवसायविशिष्टः ] अशुद्ध रागद्वेष मोह परिणामोंसे संयुक्त होता है तब [रंजोमलैः] ज्ञानावरणादि कर्मरूप मैलसे [ मलिनः ] मैला होता [चेष्टते ] संसारमें परिभ्रमण करता है । __ भावार्थ यद्यपि यह आत्मा शरीरादि परद्रव्यसे जुदा ही है तथापि संसार अवस्था अनादि कर्मसंबंधसे नानाप्रकारके विभावभाव धारण करता है. उन विभाव भावोंसे नये कर्मबंध होते हैं-उन कर्मोंके उदयसे फिर देहसे देहांतरको धारै है जिससे कि संसार वढता है।
आगें सिद्धोंके जीवका स्वभाव दिखाते हैं और उनके ही किंचित् ऊन चरमदेहपरिमाण शुद्ध प्रदेशस्वरूप देह कहते हैं ।
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ॥ ३५ ॥
संस्कृतछाया. येपां जीवस्वभावो नास्त्यभावश्च सर्वथा तस्य ।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धा वाग्गोचरमतीताः ॥ ३५ ॥ पदार्थ-[येषां ] जिन जीवोंके [ जीवस्वभावः ] जीवकी जीवतव्यताका कारण जो प्राणरूप भाव सो [ नास्ति ] नहीं है । [च] और उन ही जीवोंके [तस्य ] तिस ही प्राणका [ सर्वथा ] सर्व तरहसें [ अभावः ] अभाव [ नास्ति ] नहीं है. कथंचित्प्रकार प्राण भी है [ ते सिद्धाः ] वे सिद्ध [भवन्ति ] होते हैं । कैसे हैं वे सिद्ध ? [भिन्नदेहाः] शरीररहित अमृतीक हैं । फिर कैसे हैं ? [ वाग्गोचरमतीताः] वचनातीत है महिमा जिनकी ऐसे हैं।
भावार्थ-सिद्धान्तमें प्राण दो प्रकारके कहे हैं-एक निश्चय, एक व्यवहार. जितने शुद्धज्ञानादिक भाव हैं वे तो निश्चयप्राण हैं और जो अशुद्ध, इन्द्रियादिक प्राण हैं सो