________________
२४
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
आगे व्यवहारकालको पराधीनता किस प्रकार है सो युक्तिपूर्वक समाधान करते हैं । णत्थि चिरं वा विप्पं मत्तारहिंदं तु सा वि खलु मत्ता । पुग्गलदव्वेण विणा तथा कालो पहुचभवो ॥ २६ ॥
संस्कृतछाया.
नारित चिरं वा क्षिप्रं मात्रारहितं तु सापि खलु मात्रा | पुद्गलद्रव्येन विना तस्मात्कालः प्रतीत्यभवः ॥ २६ ॥
I
पदार्थ – [ मात्रारहितं ] कालके परिमाण विना [ चिरं ] बहुतकाल [क्षिमं ] शीघ्रही ऐसा कालका अल्प बहुत्व [ नास्ति ] नहीं है । अर्थात् कालकी मर्यादाविना थोड़े बहुत कालका कथन नहिं होता. इस कारण कालके परिमाणका कथन अवश्य करना योग्य है । [तु ] फिर [ सापि ] वह भी [ खलु ] निश्चयसे [ मात्रा ] कालकी मर्यादा [ पुद्गलद्रव्येन विना ] पुद्गल द्रव्यके विना [ नास्ति ] नहीं हैं । अर्थात् — परमाणुकी मंदगति, आंखका खुलना, सूर्यादिककी चाल इत्यादि अनेक प्रकारके जे पुढलद्रव्यके परिणाम हैं, तिनहीकर कालका परिमाण होता है । पुद्गलद्रव्यके विना कालकी मर्यादा होती नहीं [तस्मात् ] तिस कारणसे [ कालः ] व्यवहार काल [ प्रतीत्यभवः ] पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न, ऐसा कहा जाता है ।
भावार्थ- द्रव्यकी आदिअंत क्रियाकर व्यवहार काल गण लिया जाता है । परन्तु पर्याय निश्चयकालकी ही है । यद्यपि यह काल कायके अभाव से पंचास्तिकायविषै नहीं कहा, तथापि जान लेना चाहिये कि - लोककी सिद्धि षड्द्रव्यों के विना होती नहींक्योंकि-जीव पुद्गलकी परणतिकी सिद्धि निश्चयकालके सहाय विना होती नहीं और जीव पुद्गलके नवजीर्ण परिणामकी मर्यादाविना व्यवहारकालकी सिद्धि होती नही । इस कारण कालद्रव्यका स्वरूप जो जिनमती हैं, तिनको भलीभांति सूक्ष्मदृष्टिकर जानना चाहिये । इति श्रीसमयसारके व्याख्यानमें पड़्द्रव्यपंचास्तिकायका सामान्यव्याख्यान पूर्ण भया ॥१॥
I
आगें इनही पड्द्द्रव्यपंचास्तिकायका विशेष व्याख्यान किया जाता है । सो पहिले ही संसारी जीवका स्वरूप नयविलासकर उपाधिसंयुक्त और उपाधिरहित दिखाते हैं । जीवोत्ति हवदि चेदा उपओगविसेसिदो पहूकत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुतो ॥ २७ ॥
संस्कृतछाया.
जीव इति भवति चेतयितोपयोगविशेषितः प्रभुः कर्त्ता । भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्त्तः कर्मसंयुक्तः ॥ २७ ॥
पदार्थ – [ जीवः ] जो सदा ( त्रिकाल में ) निश्वयनयसे भावप्राणांकर व्यवहार