Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Panchastikaya Samay Sara
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 27
________________ श्रीपञ्चास्तिकायसमयसारः । २५ [भवति ] होता है । नयसे द्रव्य प्राणोंकर जीवै है. सो [ इति ] यह जीवनामा पदार्थ सो यह जीवनामा पदार्थ कैसा है ? [ चेतयिता ] निश्चय नयकी अपेक्षा अपने चेतना गुणसे अभेद एक वस्तु है. व्यवहारकर गुणभेदसे चेतनागुणसंयुक्त है. इस कारण जानने वाला है । फिर कैसा है ? [ उपयोगविशेषितः ] जाननेरूप परिणामों से विशेषितः कहिये लखा जाता है। जो यहां कोई पूछे कि चेतना और उपयोग इन दोनोंमें क्या भेद है ? तिसका उत्तर यह है कि चेतना तो गुणरूप है. उपयोग उस चेतनाकी जाननरूप पर्याय है. यह ही इनमें भेद है । फिर कैसा है यह आत्मा ? [ प्रभुः ] आस्रव संवर बन्ध निर्जरा मोक्ष इन पदार्थोंमें निश्चय करके आप भावकर्मोंकी समर्थतासंयुक्त है । व्यवहारसे द्रव्यकर्मोकी ईश्वरता संयुक्त है । इस कारण प्रभु है । फिर कैसा है ? [कर्त्ता ] निश्चय नयसे तो पौगलिक कर्मोंका निमित्त पाकर जो जो परिणाम होते हैं, तिनका कर्ता है । व्यवहारसे आत्माके अशुद्ध, परिणामोंका निमित्त पाय जो पौद्गलीक कर्म परिणाम उपजते हैं तिनका कर्त्ता है । फिर कैसा है ? [भोक्ता ] निश्चयनयसे तो शुभ अशुभ कर्मों के निमित्तसे उत्पन्न हुये जे सुखदुःखमय परिणाम, तिनका भोक्ता है और व्यवहारसे शुभ अशुभ कर्मके उदयसे उत्पन्न जो इष्ट अनिष्ट विषय तिनका भोक्ता है । [च] फिर कैसा है ? [देहमात्रः] निश्चयनयसे यद्यपि लोकमात्र असंख्यात प्रदेशी है, तथापि व्यवहार नयकी अपेक्षा संकोच विस्तारशक्तिसे नाम कर्मके द्वारा निर्मापित जो लघु दीर्घ शरीर है, उसके परिमाण ही तिष्ठै है. इसकारण देहपरिमाण है । फिर कैसा है ? [ न हि मूर्त्तः ] यद्यपि व्यवहारकर कर्मनसे एक स्वभाव होनेसे मूर्तीक विभाव परिणामरूप परिणमता है. तथापि निश्चय स्वाभाविक भावसे अमूर्त है. फिर कैसा है ? [कर्मसंयुक्तः ] निश्चयनयसे पुद्गल कर्मोंका निमित्त पाय उत्पन्न हुये जे अशुद्ध चैतन्य विभाव परिणामकर्म, उनकर संयुक्त है । व्यवहारसे अशुद्ध चैतन्य परिणामोंका निमित्त पाय जो हुये हैं पुलपरिणामरूप द्रव्य कर्म, तिनकरके सहित है. ऐसा यह संसारी आत्माका शुद्ध अशुद्ध कथन नयोंकी विवक्षासे सिद्धान्तानुसार जान लेना । आगे मोक्षविषै तिष्ठे हुये जे आत्मा, तिनका उपाधिरहित शुद्ध स्वरूप कहा जाता है । कम्ममलविप्मुको उर्दू लोगस्स अंतमधिगंता । सो सव्वाणदरसी लहदि सुहमणिदियमर्णतं ॥ २८ ॥ संस्कृतछाया. कर्ममलविप्रमुक्तं ऊर्ध्वं लोकस्यान्तमधिगम्य | स सर्वज्ञानदर्शी लभते सुखमतीन्द्रियमनन्तम् ॥ २८ ॥ पदार्थ–[यः] जो जीव [ कर्ममलविप्रमुक्तः ] ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्म भावकर्म कर सर्व प्रकारसे मुक्त हुवा है [स] वह [ सर्वज्ञानदर्शी] सबका देखने जाननेवाला शुद्ध

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