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रघुवरजसप्रकास
लीजै ॥१३६
विप्री तेरह लघुव दीजै, लघु यकवीस खित्रणी सतावीस लघु वैसी सोई, है लघु अधिक सुद्रणी होई । बिअनुसार अंध का वाचत, सुज अनुसार एक कांगी सत ॥१३७ व्यंदु दोय सुनयणा बिसेखौ, बहु अनुसार मनहरा बेखौ । विण सकार पदमणी विसेखत, एक सकार चित्रणी ओपत ॥१३८ च्यार सकार हसतणी चावी, बहु सकार संखणी बतावी |
बोह करण जिका बाळा गण, मुगधा करतळ घरणा तिका मुख ॥१३६ भगण बहुत सौ प्रौढ़ा भंणजै, गण बोह विप्र वरधका गिराजै । १३६. रांड-विधवा | मांझ - (मध्य) में । जिस गाथा छंद में १३ लघु वर्ग होते हैं उसे विप्र कहते हैं । २१ लघु वर्ग जिस गाथामें श्रा जाते हैं उसे क्षत्रिया संज्ञा दी गई है। इसी प्रकार जिस गाथा छंद में २७ लघु वर्ण श्रा जाँय उसको वैश्य संज्ञा दी गई है और जिस गाथा
छंदमें २७ से भी अधिक लघु वर्ण ग्रा जाते हैं उसकी शुद्रा संज्ञा मानी जाती है । १३७. गाथा छंद में अनुस्वार श्राना जरूरी माना गया है । जिस गाथा छंद में अनुस्वार न हो उसकी संज्ञा अंध मानी गई है । जिस गाथा छंदमें एक ही अनुस्वार होता है उसे एकाक्षी कहते हैं । इसी प्रकार जिस गाथा छंद में दो अनुस्वार आते हैं उसको सुना
कहते हैं और जिसमें अनुस्वारों की बाहुल्यता होती है उसे मनोहरा गाथा कहते हैं ।
१३८. जिस प्रकार गाथा छंदमें ग्रनुस्वार लेना ठीक माना गया है ठीक उसके विपरीत सकार अक्षरका न प्रयोग करना ही सुंदर गिना जाता है । जिस गाथा छंदमें सकार नहीं होता है उसकी संज्ञा पद्मिनी मानी गई है । जिसमें एक भी सकार आ जाय उसे चित्रणी, जिसमें चार सकार प्रा जाय उसे हस्तिनी तथा सकार - बाहुल्या गाथाको शंखरणी कहते हैं । १३६. गण-गाथा छंद में चार मात्राके नामको गरण कहते हैं । ऐसे चतुष्कलात्मक सात गरण और एक गुरुके विन्यास गाथा छंदका पूर्वार्द्ध बनता है । वे चतुष्कलात्मक पांच गए निम्न प्रकार के होते हैं
प्रथम गण-- (ss ) चार मात्राका । इसका दूसरा नाम कर भी है।
द्वितीय गरण - ( 115 ) चार मात्रा | इसका दूसरा नाम करतळ या करताळ भी है । तृतीय गरण -- (151) चार मात्रा | इसका दूसरा नाम पयहर, पयोहर, पयोधर भी है । चतुर्थ गण- - ( 511 ) चार मात्रा । इसका दूसरा नाम वसु, पय भी है।
जिस गाथामें दो दीर्घ मात्राका करण (कर्ण) गण बहुत प्राता हो उसे बाला गाथा कहते हैं तथा जिस गाथामें करतळ या करताळका [॥ प्रथम दो ह्रस्व मात्रा तथा एक दीर्घ मात्रा कुल चार मात्राके समूहका ] प्रयोग बहुत हो उसे मुग्धा कहते हैं । जिस गाथा छंद में भगरका [प्रथम दीर्घ फिर दो हृस्वके चार मात्राके समूहका ] प्रयोग बहुत हो उसे प्रौढ़ा कहा गया है। ठीक इसी प्रकार जिस गाथा छंदमें विप्रका [ दुज= द्विज, चार मात्राके ही समूहका ] प्रयोग बहुत हो उसे वरधका [वृद्धा ] गाथा कहा जाता है ।
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