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१५४ ]
रघुवरजसप्रकास
छंद गीतिका
(स.ज.ज.भ.र.स.ल.ग.) १२,८ करतार भू अधार केसव धार पांण सधांनखं । रघुनाथ देव समाथ राजत मां विसार स मांनुखं । जळ पाज बंध उतारजै कपि साज सेन सकाजयं । रसना 'किसन्न'सु जांम-आठ उचार सौ रघुराजयं ॥ १५३
___ छंद गल्लिका (र ज.र.ज.र.ज.ग.ल.) रांम नाम आठ-जांम गाव रे सुपात एह देह सार । और धंध फंद सौ अनाख रे न आखरे गणं नकार ॥ औध-ईस जेण सीस आच रे थया सकौ सुनाथ थाय । जेण पाय कंज लीध आसरौ जके जनम जीत जाय ॥ १५४
अथ अकवीस वरण छंद वरणण जात प्रक्रति
मगण रगण भगणह नगण, यगण तीन प्रति पाय । वीस एक सोभित वरणा, सौ स्रगधरा सभाय ॥ १५५
१५३. गीतिका-इस छंदके प्रथम चरणकी रचनामें छंद शास्त्रके नियमका निर्वाह नहीं हुआ।
सुधांनखं श्रेष्ठ धनुष । समाथ-समर्थ । मां-मत । विसार-विस्मरण कर । सउसको । मांनुख-मनुष्य । रसना-जीभ । जांम-पाठ (अष्ट याम)--प्राठों पहर ।
सौ-उस, वह । १५४. गंडका, गंडिका गल्लिका छंद--रल्यका आदि इस छंदके अन्य नाम हिंदी व राजस्थानी
भाषामें मिलते हैं । इसे छंद शास्त्रमें वृत्त भी कहा गया है। प्रथम गुरु फिर लघु इस क्रमसे बीस वर्णका यह वृत्त माना गया है। ऐसा ही लक्षण ग्रंथकर्त्ताने दिया है। पाठ-जांम (अष्टयाम)-पाठों पहर । सुपात (सुपात्र)-श्रष्ठ कवि । एह-यह। सारसारांश, तत्त्व रूप। धंध-धंधा, कार्य, काम। फंद-बंधन, जाल। अनाख (अनाहक)नाहक, व्यर्थ । पौध-ईस-श्री रामचंद्र भगवान । जेण-जिसके । पाच-हाथ । थयाहए। सकौ-सब, वह। पाय-चरण । कंज-कमल । लीध-लिया। प्रासरौ
सहारा, पाश्रय। . १५५. अकवीस वरण छंद-एक विंशत्याक्षरावृत्ति । इक्कीस अक्षरोंके छंदकी संज्ञा प्रकृति कही
जाती है जिसमें प्रस्तार भेदसे २०६७१५२ भेद होते हैं ।
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