Book Title: Raghuvarjasa Prakasa
Author(s): Sitaram Lalas
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 342
________________ रघुवरजसप्रकास [ ३१७ दीध प्रदछण हाथ जोड़ न हरि, चरणाम्रत दरस निहार । करै तिलक राघव जस किता, जीता 'किसन' जिके जमवार ॥२८८ अथ गीत घणकंठ सुपंखरौ लछण दूहा पहल अठारह बी चवद, सोळ चवद लघु अंत । श्राद अंत गिणती अखर, गुण सुपंखरौ गिणंत ॥ २८६ कंठ सुपंखरा बीच कह, आठ प्रथम बी सात । आठ सात क्रम यण अधिक, नावै कंठ निघात ॥ २६० आद कंठ चव अक्खिरां, अंत दोय ठहराव । यौ सुबंध घट अक्खियां, बिगड़े कंठ वणाव ॥ २६१ अरथ सुपंखरौ गीत वरण छंद छै जिकै तुक प्रत आखिर गिणती। पै'ली तुक वरण अठारै । दूजी तुक वरण चवदै । तीजी तुक वरण सोळे । चौथी तुक वरण चवदै होवै । पाछला दूहारा वरण सोळ चवदै सोळे चवदै ई क्रमसं होवै, जींसू सुपंखरा गीतमें कंठकी हद कहै छै। पै'ली तुकमें कंठ पाठ होय । दूजी तुकमें कंठ सात होय । तीजी तुकमें कंठ पाठ होय । चौथी तुकमें कंठ सात होय । अठा प्रागै कंठ न होय । च्यार ही पाखरांरौ कंठ तौ उरलौ होय । अठा सवाय अाखर आयां कंठ सिथळ होय । दोय अखिरसूं कंठ घटतौ न होय । दोय अखिरसू कंठकी हद छै सो दरसाई छ । पछै पाछला दूहां में कंठ घाट-बाध छै । घणा कंठांमें कारण कारज सारथक आवै नहीं। थोड़ा कंठां में कारण कारज सारथक आवै । घणा कंठांसू तुक पाछी वणै नहीं। समभाव कंठसू तुक रूप पावै । २८८. दोध-दी । प्रदछण-प्रदक्षिण। दरस-दर्शन । निहार-देख कर। किता-कितने । जमवार-जीवन, यमराज का प्रहार । २८९ बी-दूसरी । चवद-चौदह । सोळ-सोलह। गण-काव्य, कविता, गीत । गिणंत गिनते हैं, समझते हैं। २६०. कंठ-अनुप्रास । निघात-अधिक । २६१ चव-चार । अक्खिरां-अक्षरों। घट-कम । वणाव-रचना, बनावट । पाछला पीछेके । हद-सीमा । अठा प्रागै-इससे अगाडी । उरलौ-चौड़ा, विस्तारपूर्ण । घटतौ-कम । घाट-बाद-कम-अधिक । पाव-प्राप्त करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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