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रघुवरजसप्रकास मन रुच खाया बेर फळ, जिण सवरी पामर । ते कदम रज आभड़े, अवरत गौतम तर ॥ तोते कीन्ह सहाय हत, यळ गणका उद्धर । परचौं नाम तिराइया, पांणी सिर पाथर । जेण उधारे अवधपुर, जग सारे जाहर । नांम ब्रह्म सिव बाद ले, प्रभणै अह सुर नर ॥
वे जिन्हां जीता जमार, गाया सीताबर ॥ ४ अथ निसांणी दुमळा नांम जांगड़ी (प्राद गुरु अंत लघु तुकंत) उदाहरण
निसांरगी । विप ानप सरूप स्यांम, घट वरसण वार । कसियौ कट तट कोमळा, चपळा पट-चार ॥ भुज-प्राजांन विसाळ भाळ, कट संघ प्रकार । नयण भ्रह नासिका कमळ, धनु सुक निरधार । परम जोत दसरथ प्रथीप, ते ग्रह अवतार । जंग अडोळ अबोळ नाट, दस सिर खळ जार ॥ सोवन्न लंक भभीखणह, दी सरणसधार ।
श्री जगनायक रामचंद, निरधार अधार ॥ ५ ४. सवरी-भिल्लनी। पांमर-नीच । ते-तेरी। कदम-चरण । रज-धुलि । प्राभड़े
स्पर्श की। अवरत-औरत । तोते-तोता, शूक । कीन्ह-की। यळ-पृथ्वी। परचौचमत्कार। सिर-ऊपर । पाथर-पत्थर । जग-संसार। सारे-सब । जाहर-प्रसिद्ध । प्रभण-वर्णन करते हैं, स्मरण करते हैं। प्रह-नाग। जमार-जन्म, जीवन। गाया
वर्णन किया। सीतावर-श्रीरामचंद्र ।। ५. विप-शरीर। प्रानूप-अनुपम । कट-कटि, कमर । कोमळा-कोमल । चपळाबिजली। पट-चार-वस्त्र । भुज-प्राजांन-पाजानबाहु । भाळ-ललाट । कट-कमर, कटि । संघ-सिंह। नासिका-नाक । सुक-तोता। जोत-प्रकाश। प्रथीप-राजा । ते-उसके । ग्रह-घर । जंग-युद्ध । अडोळ-दृढ़ । नाट-निषेधात्मक शब्द। दससिर-रावण । खळ-राक्षस। जार-ध्वंश, संहार। सोवन्न-सुवर्ण, सोना। सरणसधार-शरणमें
आए हुएकी रक्षा करने वाला। निरधार-जिसका कोई आश्रय या सहारा न हो। नोट-उपर्युक्त दुमिळा निसांणी छंदका लक्षण ग्रंथमें स्पष्ट नहीं है । इस दुमिळा निसांणी छंदके
प्रत्येक चरणमें चौदह और नव पर विश्राम सहित कुल २३ मात्राएँ हैं तथा अंतमें गुरु लघु होते हैं।
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