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रघुवरजसप्रकास टेर प्रहळादकी सुनत नरस्यंघ रूप , प्रगटे असंभ त्यौंही खंभते गराजके ॥ बाहनें तियाग के ऊबाहने पगन धाये , बाहरको जाहर रटत गजराजके । 'किसन' कहत रघुराज ढील कौन काज , मेरी लाज राखिबौ भुजन माहाराजके ॥ १७८
छंद पुनः कवित्त माया परिहरि रे पकरि रे चरन गुरु , जर रे कळ ख पुंज अक्रत न कर रे। अंतकते डर रे न धर रे सुदेह नित , कर रे सुक्रम सतसंगमें विचर रे॥ मरत अमर रे सु कौन तुव नर रे, पै स्रीमतको रर रे सु प्रेम द्रग भर रे । तर रे जगत सिंधु पर रे चरन कंज , धर रे हियेमें ध्यान राघव समर रे ॥ १७६
छंद पुनः कवित्त अक्रत करन कौन लावत है बार झठी , करत लबार बार बार आठं -जांममें। तन करतारको विचार हू न करे नेक ,
बांधत कुटंबके विटंब नेह दांममें ॥ १७८. नरस्यंध-नृसिंहावतार । असंभ-असंभव । खंभ-स्तंभ । गराजके-गर्जना करके ।
ऊबाहने- नंगे पैर । बाहर-रक्षा। ढील-विलम्ब, देरी। १७६. कळुख-(कलुष) पाप । पुंज-समूह । अक्रत-दुष्कर्म, पाप । अंतक-यमराज । सुक्रम
श्रेष्ठ कार्य, पुण्य कर्म । अमर-देवता। रर रे-स्मरण कर । सिंधु-सागर, समुद्र ।
कंज-कमल। १८०. बार-समय । लबार-असत्यवादी, झूठा । विटंब-प्रपंच । नेह-स्नेह । दाम-रुपया, पंसा ।
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