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रघुवरजसप्रकास मोहित काळ कहै कमळमुख , बौहित बिमळ औण कर बसौं ॥ मुळक जानकी रांम लिच्छंमण , भणियौ दुचै स करम न भाई । राधव चरण धुवाय क्रपा कर , तरण कीर सकुटंब तिराई ॥११२ अथ गीत अरटिया लछण
दूहौ धुर अठार फिर बार धर, सोळ बार गुरु दोय । सोळ बार मत तुक सरब, सखै अरटियौ सोय ॥ ११३
पै'ली तुक मात्रा अठार होय। दूजी तुक मात्रा बारै । तीजी तुक मात्रा सोळे होय । चौथी तुक मात्रा बारै होय । पछै दूजां दूहां पै'ली मात्रा सोळ । दूजी तुक मात्रा बारै। तीजी तुक मात्रा सोळे । चौथी तुक मात्रा बारै । सोळे, बारै ई क्रमसू होय । दोय गुरु तुकांत होय, जी गीतनै अरटियौ कहीजै ।
अथ अरटिया गीत उदाहरण
गीत दाखां आठरै खट भाख चवदह, पाठ विधांन पिछाणै । जिकै अकाथ ज्ञान बिन झूठा, जे रघुनाथ न जाणे ॥ दीनदयाळ बिना गुण दूजा, आळ-जंजाळ अलप्पै ।
'किसनौ' कहै पात जे केहा, जेहा रांम न जंपै ॥ ११२. बौहित-नाव, नौका। बिमळ-विमल, निर्मल। गौण-चरण । बसौ-बैठिए ।
मळक-हंस कर । लिच्छमण-लक्ष्मण । तरण-नाव, नौका। तिराई-तैरा दी. पार
कर दी। ११३. धुर-प्रथम । बार-बारह । सखे-कहते हैं । जी-जिस । ११४ भाख-भाषा। चवदह-चौदह । जिकै-जो, वे। अकाथ-व्यर्थ । गुण-काव्य-रचना।
दूजा-दूसरा। प्राळजंजाळ-व्यर्थका प्रलाप। अलप्पै-अल्प, तुच्छ । जे-जो । केहाकैसा । जेहा-जीभ ! जंपै-पढ़ते हैं, वर्णन करते हैं।
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