________________
१४२ ]
रघुवरजसप्रकास
छंद प्रजास (विषम-पद ४ ल.स.ज.ग.ग., सम-पद ४ ल.भ.र.य.) गढ कनक जिसा अगंज गाहै, सुर नर नाग महेस सा सराहै । कुळ-तरण जनां सिहायकारी, धनुसर पांण रहै सधीरधारी ॥११३
अथ चतुरदस अखिर छंद वरणण, जात सक्करी
कहि वसंत तिलका त,भ ज दोय करण जिण अंत । आद अंत गुरु मध्य लघु, बारह चक्र लसंत ॥ ११४
छंद वसंततिलका (त.भ.ज.ज.ग.ग.) सारंगपांण जय राम तिलोकस्वांमी । भूपाळ-भूप भुजडंड प्रचंड भांमी ॥
११३. कनक-स्वर्ण, सोना। अगंज-जिससे कोई जीत न सके, अजयी। गाहै-नष्ट कर
देता है, ध्वंश कर देता है । सुर-देवता। महेस-महादेव। सराहै-प्रशंसा करते हैं, स्तुति करते हैं। कुळ-तरण (तरकुल)-सूर्यवंशी। सिहायकारी-सहायता करने वाला।
सधीरधारी-धैर्यवान । नोट---छंद प्रजासके जो लक्षण ग्रंथकर्त्ताने दोहेमें दिये हैं उनसे उदाहरण नहीं
मिलता। ११४. चतुरदस अखिर छंद-चतुर्दशाक्षरावृत्ति । सक्करी-शक्कर या शक्वरी । चौदह अक्षरों
वाले छंदोंकी संज्ञाके अंतर्गत निम्नलिखित वर्णवृत्त संस्कृत साहित्यमें है, उनमेंसे ग्रंथकर्ताने सिर्फ उपर्युक्त दो वर्णवृत्तोंका ही उल्लेख किया है । वे वर्णवृत्त ये हैं- वसंततिलका, असंबाधा,अपराजिता,ग्रहणकलिका, वासंती, मंजरी, कुटिल, इन्दुबदना, चक्र, नांदीमुख, लाली तथा अनंद । उपर्युक्त वर्ण वृत्तोंमें वसंततिलकाको कवि-समाजमें अधिक महत्त्व दिया गया है। वैसे प्रस्तार-भेदसे चौदह अक्षरों वाले छंदोंकी कुल संख्या १६३८४ होती है। त-तगरण । भ-भगण । ज-जगण । दोय-दो। करण-दो दीर्घ मात्राका नाम । ग्रंथकर्ताने चक्रछंदका लक्षण लिखते समय अपनी प्रखर बुद्धिसे सिर्फ यह लिख दिया कि जिसके आदि और अंतमें दीर्घ वर्ण और मध्यमें बारह लघु वरण हो सो भी अति सुंदर लक्षण है । इस छंदमें सात-सात वर्ण पर यति होती है। सारंग-पांण (सारंगपाणि)-विष्णु, श्री रामचन्द्र भगवान । तिलोकस्वामी-त्रिलोकपति। भूपाळ-भूप-राजाओंका राजा, सम्राट। भांमी-बलैया, बलैया लेता हूँ। न्यौछावर होता हूँ।
११५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org