Book Title: Purusharthsiddhyupay
Author(s): Amrutchandracharya, Munnalal Randheliya Varni
Publisher: Swadhin Granthamala Sagar

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Page 7
________________ - এখৱিত্মঘাথ ...............: इस विषयमें किसनेही व्यामोही जीव विमा तथ्य समझे असत आक्षेप करते हैं कि यह अंथ मुहस्थों या धावकोंके लिये उपयोगी ( लाभदायक ) नहीं है, अतः इसके पढ़ने एवं स्वाध्याय करनेसे व्यवहार धर्म छूट जायगा-...पूजापाठ, दानपुण्य, संयम आदि, यह अत्यन्त नासमझी है। यह प्रस्थरत्न पेश्तर अज्ञान मिटाता है अर्थात् निश्चय और व्यवहारके भेदको न समझकर जी भूल हो रही है, उसको दोनोंमें भेद बताकर प्रबुद्ध करता है या सावधान करता है कि सब लोग निश्चय और व्यवहारको एक न समझकर जुदा खुदा समझे तथा दोनों फर्क ( भेद ) समझकर महण-त्याग करें, जो हिसकर हो उसे अपमावें तथा जो अहितकर हो उसे त्यागे, कोई जबर्दस्ती नहीं है। जैसे कि कोई आदमी यदि भोजन करने से बीमार होता है, और भोजन छोड़ देनेसे नोरोग होता है, ऐसा ज्ञान करानेवाला वैद्य दोनोंका स्वरूप बताकर यदि भोजन छुड़ाता है सो क्या वह कोई अनर्थ करता है कि उपकार करता है ? इसका निर्धार स्वयं ही रोगी और अन्य जीव कर लेने, कहनेकी जरूरत महीं है । स्वयं वह विवेक करलेने की बात है । अरे, जो जीव वस्तु के दोष गुण जान लेता है, वह खुदही दोषका स्याग और गुणका ग्रहण करने लगता है। ऐसी स्थितिमें जब विधेकी व्यवहारके दोष और शिकच्चयके गुण मान लेगा तब क्या वह अपना मार्ग या कर्तव्य निश्चित करनेमें दूसरोंको प्रतीक्षा करेगा ? नहीं । व्यवहारका अर्थ, असत्य या अनुपयोगी है, ओ सादन ( अभीष्ट की सिद्धि न कर सके । और मिश्चयका अर्थ, सत्य या उपयोगी है. जो साध्यकी सिद्धि कर देवे। इसमें न पूजा-41०का सम्बन है, न उस छोड़ने कारनेका है, यह तो पदार्थका निर्णय है। तब विचारना होगा कि जो व्यवहारक्रिया दंड आदि (शरीराश्रित ) और शुभराग या अशुभराग ( भक्तिस्तुतिरूप या भोगविलासादिरूप ) है ( अशुस आत्माश्रित ) उनसे क्या जीवको मोक्षकी (पाध्यकी ) प्राप्ति हो मागगी या वह संसारमें ही पड़ा रहेगा ? क्योंकि वह सब व्यवहाररूप साधन ( हेतु.) है अर्थात उनको उपचारसे ( कल्पमामात्र ) मोक्षका साधन कहा जाता है या कहा गया है, म कि निश्चयसे । निश्चयका अर्थ भूतार्थ और व्यवहारका अर्थ, अभूतार्थ भी है। तब का अभूतार्थ का त्याग करना बुरा है ? और उसका ग्रहण करना अच्छा है ? नहीं, नहीं, नहीं,। हाँ, अबसक सत्यको जानते हुए भी स्यायको शक्ति न होनेसे उसको मजबूरी में (अगत्या....इच्छा विना) ग्रहण करना पड़ रहा है, सवतक वह कथंचित उपादेय है-वह भी अरूचिपूर्वक, म कि रुचिपूर्वक या स्वामी बनकर, किन्तु नौकरकी तरह होकर उसको विवेकी ग्रहण करता है और मनमें उसको छोड़नका ही विचार रखता है तथा यथाशचित्त छोड़ता भी जाता है, यह उसकी चर्या या वृत्ति हो जाती है, अर्थात् छेदके साथ उस व्यवहार कार्यको बह करता है यह भाव है। ऐसी स्थितिमें वह शानः शनै: मोक्ष प्राप्त कर लेता है, किन्तु ब्यवहारको उपादेय या अत्याज्य माननेवाले कभी भी उससे त्रिकालमें मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते, यह प्रय है, किम्बहुना । 'सब धान बाईस पसेरी नहीं तुलती' यह लोकोक्ति सत्य है विचार किया जाय, विवाद न किया जाय । आचार्य महाराजका यह स्पष्ट मत है, सभी तो उन्होंने बारह प्रसोका, उनके अतिचारोंका एवं सम्यग्दर्शनका, उसके अतिचारोंका पूर्णसया एक एक करके निरूपण किया है । तात्पर्य यह कि १२ अप, २२ परीषह, ११ प्रतिमाएँ, अनुहि भोजन, भौगोपभोगका त्याग, अष्टमूलगुण, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, उमका निश्चय व्यवहाररूप, पंचलब्धियोंका विस्तृत कथन, प्रायोग्यलब्धि होनेवाली विशेषता, करणलब्धि भेद १. सर्व स्वैव नियत्तं मवति स्वकीय-कोदयान्मरणजीवितःससौख्यम् । ___अशानमेतदिह यत्त परपरस्थ कुन पुमान् मरणनीवितसौख्यम् ॥ १६८ ॥ कला मोर-कमका अर्थ परिणमन या वस्तु का स्वभाव या कार्यपाय है अस्तु ( यह अशान अध्यक्षसाय है। १० २५४ आदि) SARKARSANSKRISROYALom

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