Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 13
________________ पुण्यास्रव कथाकोश देवके प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करना और अर्हन्तके गणोंको स्वयं अपने में विकसित करना है, न कि देवसे कोई भिक्षा मांगना । उदाहरणार्थ, तीसरी कथामें कहा गया है कि एक मेण्डक भी भगवान् महावीरको पूजाके किए कमल ले जाता हआ मार्गमें राजाके हाथी द्वारा कुचला जाकर मरनेके पश्चात् स्वर्गमें देव हुआ। ऐसी कथाका उद्देश्य यही है कि प्रत्येक गृहस्थको अपनी गति सुधारने के लिए देवपूजा करना चाहिए। इस खण्ड में विशेषत: पुष्पांजलि पूजाका विस्तारसे विधान किया गया है। दूसरे अष्टक में 'णमो अरहताणं' आदि पंचनमस्कार मन्त्रोच्चारणके पुण्यको कथाएं हैं। इस मन्त्रका जैन धर्ममें बड़ा महत्त्व है और उत्तरकालमें ध्यान, क्रियाकाण्ड एवं तान्त्रिक प्रयोगोंमें उसका विशेष महत्त्व बढ़ा । यद्यपि प्रारम्भिक श्लोकोंपर दो क्रमांक है ( १२-१३ ), तथापि उनकी कथा एक ही है। तृतीय अष्टकमें स्वाध्यायके पुण्यकी कथाएँ हैं । स्वाध्यायसे तात्पर्य केवल जैन शास्त्रोंके पठनसे नहीं है, किन्तु उनके श्रवण व उच्चारणसे भी है, और पशु-पक्षियोंको भी उसका पुण्य होता है । चतुर्थ अष्टकमें शीलके उदाहरण वर्णित हैं । गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नीके प्रति एवं पत्नीको पतिके प्रति पूर्णतः शीलवान होना चाहिए । पंचक अष्टकमें पर्वोपर उपवासोंका पुण्य बतलाया गया है । उपवास छह बाह्य तपोंमें से एक है, और उसका पालन मुनियों और गृहस्थोंको समान रोतिसे करना चाहिए। छठे खण्डमें पात्र-दानका महत्त्व वणित है । इस खण्डमें दो अष्टक अर्थात् सोलह कथाएं हैं। इन कथाओंके गठन और शंलीपर भी कुछ ध्यान दिया जाना योग्य है। प्रत्येक कथा के प्रारम्भिक एक श्लोक (एक स्थानपर दो श्लोकों) में कथाके विषयका संकेत कर दिया गया है, और अन्तिम श्लोक ( जो प्रायः लम्बे छन्दमें रहता है ) आशीर्वादात्मक और विषयकी प्रशंसायुक्त होता है। प्रारम्भिक पद्य स्वयं ग्रन्थकार-द्वारा रचित हैं, या पीछे जोड़े गये हैं, इसका निर्णय करना वर्तमान प्रमाणों-द्वारा असम्भव है । कथाएं गद्य में वर्णित है, और गद्यकी भाषा ऊपरसे तो सरल दिखाई देती है, किन्तु बहुधा जटिल हो गयी है। कथाओंके भीतर उपकथाओंके समावेशकी बहलता है। इन कथाओंमें भूत और भावी जन्मान्तरोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है जिससे कथावस्तु में जटिलता आ गयी है। यत्र-तत्र संस्कृत व प्राकृतके कुछ पद्य अन्यत्रसे उद्धृत पाये जाते हैं । (६) पुण्यास्रवके मूल स्रोत इस ग्रन्थकी कथाओंके आदि स्रोतोंकी खोज भी चित्ताकर्षक है । करकण्डु (६), श्रेणिक (८), चारुदत्त (१२-१३) दृढ़सूर्य (१६), सुदर्शन (१७) यममुनि (२०), जयकुमार-सुलोचना (२६.२७), सीता (२९), नीलो (३२) नागकुमार (३४), रोहिणी (३६-३७), भद्रबाहु-चाणक्य (३८), श्रीपेण (४२), वज्रजंघ (४३), भामण्डल (५१), आदिकी कथाएं जैन साहित्यमें सुप्रसिद्ध हैं। इन कथाओंमें नायकके केवल एक जन्मका चरित्रमात्र वणित नहीं है, किन्तु अनेक जन्म-जन्मान्तरोंका, जिनमें उनके मन, वचन व काय सम्बन्धी शुभ या अशुभ कर्मो के फलोंकी परम्परा पायी जाती है। जिस क्रमसे इन कथाओंका विस्तार हुआ है, एवं उनमें ग्रथित घटनाओंका समावेश किया गया है उसको पूर्णरूपसे समझने-समझाने के लिए समस्त साहित्यको छानबीन करना आवश्यक है। अध्ययनकी इस परिपाटीके लिए आर० विलियम्स कृत टू प्राकृत व्हर्सन्स ऑफ़ दि मणिपति-चरित ( लन्दन, १९५९) की प्रस्तावना देखने योग्य है। यहाँ उस प्रकारसे क्रम-बद्ध विस्तार. वर्णन करनेका विचार नहीं है, केवल मलस्रोतोंका सामान्य संकेत करनेका प्रयत्न किया जाता है। कहीं-कहीं स्वयं पुण्यास्रवकारने अपने कुछ स्रोतोंका निर्देश कर दिया है। उदाहरणार्थ, भूषण वश्यकी कथा (५) में रामायणका उल्लेख है। वहां जो जल-केलि, देशभूषण और कुलभूषणके आगमन तथा भवान्तरोंका वर्णन आया है, उससे प्रतीत होता है कि कर्ताकी दृष्टि रविषेण कृत पद्मचरित, पर्व ८३ आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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