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( २१ ) गर्जना क्या, तोहि सुनि न पराय रे, आपदा भर 'नित्य तोकौं,कहा नहीं दुःख दायरे ॥ अरे हो ॥३॥ यदि तोहि कहा नहीं दुख, नरकके असहाय रे । नदी वेतरनी जहां जिय परे अति बिललाय रे ॥ अरे हो ॥४॥ धनादिक घनपटल सम, छिनकमांहिं बिलाय रे। भागचन्द सुजान इमिजदु कुल-तिलक गुन गाय रे ॥५॥
४३ राग-बिलाबल । सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ॥ टेक ॥ स्वजन कुटुम्बी जन तू पोरी, तिनको होय सदैव गुलाम । सो तो हैं स्वारथके साथी, अन्तकाल नहिं आवत काम || सुमर सदा ॥१॥ जिमि मरीचिकामें मृग भटके, परत सो जव ग्रीषम अति घाम । तैसे तू अवमाहीं भटके धरत न इक छिनहू विसराम ॥ सुमर ॥२॥ करत न ग्लानी अब भोगनमें, धरत न वीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहिं दुख सहसी, जहां सुख ले
शमें आठौं जाम ॥॥ तातै आकुलता अव तजिक, थिर ह ठो अपने धाम । भागचन्द वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम ॥सु०