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प्रतिष्ठित लोग उसके साथ विचारों का आदान-प्रदान करते थे।विविधविषयों में, पारिवारिक समस्याएँ, गुप्त बातें, विचारणीय बाबत, निर्णय तथा लेन-देन के व्यवहार में उनकी सलाह मान्य थी।आज के सलाहकारों तथा वकीलों की भांति उनकी सलाहें पैसे देकर नहीं लेनी पडती थी। उनके सलाह-सूचन और सम्मति महत्त्वपूर्ण थे, ऐसा पक्का लगता है।
सुन्दर परिवारं अपने परिवार के लिए भी आधारभूत स्तम्भ के समान थे।वैसे आज तो बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनकी यदि घर के अन्दर कीमत है तो बाहर नहीं है,
और बाहर कीमत है तो घर के अन्दर नहीं है। जबकि वे सब जगह आदरपात्र माने जाते थे। इसमें उनकी प्रारम्भिक कोटि की गुण-समृद्धि अद्भुत होगी, ऐसा महसूस होए बिना रहता नहीं है।
उनकी सर्वांग सुन्दर शिवानन्दा नामक भार्या का उनके प्रति अटूट प्रेम था । वह मधुरभाषिणी और अनुरक्ता थी तथा क्रोधआने पर भी प्रतिकूल होनेवाली नहीं थी। अर्थात् धन-ऋद्धि, लोक आदर और परिवार की दृष्टि से भी सन्तोषरूप जीवन प्राप्त ये महानुभाव हर प्रकार से सुखी थे, ऐसा सूचित करते हुए मानो सूत्रकार महर्षि यह बतलाना चाहते हैं कि वे पहले दुःखी थे और प्रभु के मिलने से धर्म करने लगे, ऐसा नहीं है। बल्कि भरपूर भोग-सुख होते हुए भी प्रभु के वचन से यह ही आत्महितकर हैं, यह समझकर धर्ममार्ग में लगे हुए थे।
. ऐसे महानुभाव जब धर्म को प्राप्त करते हैं, तब कैसे आराधकप्रभावक बनशके ? रक्षा के लिए भी अपने प्राण भी दे देवेन? श्रावकधर्म भी अत्यन्त श्रेष्ठ है। उसका पालन करना भी सरल नहीं है। जिसे संसार बरा लगे. उसके लिए सबकुछ सरल है।
प्रभुवीर के दश श्रावक....................