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करनेवाला वहमहानुभाव विशाल स्थावर सम्पत्ति का भी मालिक था।
सबके लिए आदरपात्र-सलाहकार उसे प्रभु की देशना सच्ची . सलाहरूप सिद्ध हुई। प्रभु की दृष्टि उसके लिए आत्मोन्नति का सोपान बन गई। सम्यक्त्व सहित बारह व्रतों को धारण कर उसने सुश्रावकत्व को प्राप्त किया। उसके साथ उसकी धर्मपत्नी धन्यादेवी भी प्रभुभक्ति परायणा सुश्राविका हुई!
निर्भीक साधक साधना का स्वाद साधक को प्रगति के पथ पर चढ़ने की प्रेरणा ही करती है।
सुरादेव भी मध्यरात्रि की धर्मचिन्ता में विशेष साधना का निर्णय करता है। जाति के लोगों को बतलाकर, घर की जिम्मेदारी ज्येष्ठ पुत्र को सौंपकर, प्रतिमाधारी बनकर पौषधशाला में रहने लगता है। इतने में एक देव का : आगमन हुआ।प्रतिमाधारी सुरादेव को साधना से भ्रष्ट करने के लिए विकराल स्वरूप धारण कर डरावनी आवाज में कहा,
'हेमरने की इच्छावाले सुरादेव। . . . तू अपने शीलादि व्रतों को त्याग दे। यहक्या ढोंग कर रखा है?
नहीं तो तेरे ज्येष्ठ पुत्र को यहाँ लाकर उसके पाँच टुकड़े कर कढ़ाई में तलकर उसका रक्त और मांस का तेरे ऊपर छिड़काव करूँगा, जिससे तू सिसक-सिसककर मरोगे।'
- ऐसा कहने के बावजूद उसे बिल्कूल निर्भीक देखकर उस देव ने अधिक गुस्से में दो-तीन बार कहा, उसके तीनों पुत्रों के लिए ऐसी ही बात कही, फिर भी वह अडिग रहा।
अतः चौथी बार कहा, देख,अब तेरे शरीर में सोलहमहारोग उत्पन्न करता हूँ। जिससे तुम अत्यन्त दुःखी होकर मर जाओगे।
परन्तु भय को भयभीत कर देनेवाला, वह सत्व का स्वामी बिल्कुल निर्भीक रहा।
तब दो-तीन बार इसी प्रकार कहने के बाद सुरादेव क्षुब्ध हो गये। शरीर के कष्टकी कल्पना भी अच्छे-अच्छों को भयभीत कर देती है।
.................प्रभुवीर के दश श्रावक
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