Book Title: Prabhu Veer ke Dash Shravak
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 64
________________ प्रभावना से मार्ग की रक्षा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। शक्ति होते हुए भी यदि अतत्त्व का प्रतिवाद न करे तो समकित की कमी मानी जाती है । देव पराभव : प्रभु के द्वारा की गई प्रशंसा कुंडकौलिक ने देव से पूछा : “आपको जो यह देवऋद्धि, कान्ति, प्रभाव आदि मिला है, वह उत्थान कर्म-बल-वीर्य - पुरुषार्थ- पराक्रम से मिला है या यूँ ही मिल गया है । ". देव ने जवाब दिया : "उत्थान आदि से नहीं, बल्कि नियति से मिला है । " तुरन्त ही सुश्रावक ने प्रश्न किया : "तो फिर अन्य प्राणीवर्ग का उत्थान आदि न होते हुए भी सबको देवऋद्धि क्यों नहीं मिलती ?" देव मौन हो गया, और शंकित हुआ । मुद्रा और खेस शिलापट पर रखकर वह अदृश्य हो गया । वहन तो जवाब दे सका, न ही मुँह दिखाने में समर्थ हुआ । सर्वज्ञ प्रभु ने दूसरे दिन आलंभिका में समवसरे । कुंडकौलिक वन्दना के लिए गये। प्रभु ने लोगों की धर्मश्रद्धा दृढ़ हो इस हेतु से उसे कल की बातें पूछी, और लोगों को यह ज्ञात हुआ कि देव भी इस श्रावक से परास्त हुआ । प्रभु ने धन्यवाद दिया और महात्माओं से भी कहा : "आर्यो ! यह गृहस्थ होते हुए भी अर्थ हेतु प्रश्न - कारण और व्याकरणों के द्वारा प्रतिपक्षी को पराजित कर सकता है, क्या आपके लिए यह सम्भव है ?" जीवादि तत्त्वों की स्थापना अथवा उसके आगम पाठों का अर्थ, वही अर्थ हैं । अग्नि हेतु धुएँ के समान जो साध्य को सिद्ध करे, वहहेतु । प्रतिपक्ष को आवश्यक प्रश्न करना, वह प्रश्न । युक्तियों से पक्ष को पुष्ट करना, वह कारण और प्रतिवादी के प्रश्नों का समाधान, वह व्याकरण । प्रभु की बातें निर्गन्थ-निर्गन्थिनियों के द्वारा स्वीकृत हुई, तहत्ति की गई । कुंडकौलिक श्रावक अपने घर वापस आये । योग्य अवसर पर धर की जिम्मेदारी पुत्र को सौंप दि, उसके बाद पौषधशाला में जाकर प्रतिमाओं की अखण्ड साधना की । संलेखना पूर्वक एक मास का अनशन किया । आयुष्य की समाप्ति पर अरुणध्वज विमान में देव हुआ और वहाँ से महाविदेह में मोक्ष को प्राप्त करेंगे। 1 प्रभुवीर के दश श्रावक ५२

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