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उसे पाट-पाटला-शय्या संस्थारक की इच्छा से सकडालपुत्र का आमन्त्रण चाहिए । इसी बहाने उसके साथ धर्म चर्चा का अवसर प्राप्त करना है। चूहे के समान चुपके से काटकर भी उसे मार्ग में वापस लाना है। अतः श्रमण भगवान महावीरदेव का गुणगान करते हुए पूछता है,
'क्या यहाँ महामाहण आए थे?' सकडालपुत्र भी कच्ची मिट्टी का नहीं बना है।वह पूछता है, 'हे देवानुप्रिय!कौन महामाहण?' गोशाला श्रमण भगवान महावीर का नाम लेता है।
'क्यों वह महामाहण है ?' सकडालपुत्र के इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु के यथार्थ गुणों को गान करते हुए वह महामाहण है, इसी तरह वह महागोप, महासार्थवाह, महाधर्मकथी, महानिर्यामक आदि वास्तविक गुणों से प्रभु का स्तवन अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए गोशाला ने की। . प्रभुका या गुरु का मात्र गुणगान समझकर ही भ्रम में आ जाए,ऐसा नहीं था सकडालपुत्र । वह तत्त्वज्ञ सुश्रावक था। सबकुछ उसकी समझ में आ रहा था। उसने सामने से प्रश्न किया : ‘देवानुप्रिय ! आप यदि इतने चतुर, विद्वान, अवसर के जानकार और निपुण हैं। तो क्या मेरे धर्माचार्य के साथ चर्चा कर सकते हैं?' - गोशाला जवाब में स्पष्ट है। वह कहता है : 'महानुभाव ! यह सम्भव नहीं है ।जिस प्रकार कोई बलवान युवा अपनी शक्ति से भेड़-बकड़ी को पकड़ ले
और उसे हिलने भी न दे, उसी प्रकार श्रमण भगवान महावीर अर्थ, हेतु और व्याकरणों से मुझे पकड़कर निरुत्तर कर देने में समर्थ हैं। अतः मैं उनके साथ धर्मचर्चा नहीं कर सकता हूँ।'
देखा, महानुभावो ! गोशाला अपनी असमर्थता कब स्वीकार करता है? क्या उसकी भूल आपकी समझ में आई ? ना, यह तो तत्त्व श्रद्धालु सकडालपुत्र की स्पष्टभाषिता और विवेक का गहरा प्रभाव है । प्रभु का सत्य गुणगान सुनकर सकडालपुत्र गोशाला को प्रत्यक्ष रूप में कहता है : 'मैं आपका धर्म नहीं मानता हूँ, फिर भी आप मेरे धर्माचार्य का सत्य गुणगान करते हो । अतः यदि आवश्यकता हो तो मेरे कुम्भकारशाला में पधारें और आपके अनुकूल पाट-पाटला आदि का उपयोग करें।'
प्रभुवीर के दश श्रावकं.
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