Book Title: Prabhu Veer ke Dash Shravak
Author(s): Shreyansprabhsuri
Publisher: Smruti Mandir Prakashan

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Page 63
________________ जगदुद्धारक जिनेश्वरदेव के पदार्पण का समाचार मिलते ही वे सर्वज्ञ हैं ऐसा जानकर वाणीश्रवण की रुचि के कारण हर्षपूर्वक समवसरण में पहुंचे थे। __ पत्थर को पिघला देनेवाली प्रभुवाणी को सुनकर उस महानुभाव ने समकितधारी और व्रतधारी सुश्रावकत्व को प्राप्त किया । और उसके बाद तो सर्वत्यागमय धर्म का एक अनोखा आदर्श हृदय में स्थापित कर कुंडकौलिक महान साधक बने । उसकी पत्नी पूषा भी वैसी ही धर्माराधिका बनी। उसके बाद तो श्रमण समुदाय की सेवा-सुश्रूषा आदि उसके जीवन का एक अविभाज्य अंग बन गया। अशोकवनिका : वचननिष्ठा एक बार कुंडकौलिक श्रावक अशोकवनिका में जाकर शिलापट पर अपनी मुद्रिका और खेस रखकर धर्मचिन्तन में बैठे थे, तभी एक देव ने वहाँ आकर मुद्रिका और खेस ले लिया और फिर कहा : "हे कुंडकौलिक ! मंखलिपुत्र गोशाला का धर्मोपदेश सुन्दर है। उसके कथनानुसार कर्म के लिए उद्यत होना ऐसा स्वरुपवाला उत्थान नहीं है, साध्य के लिए गमनादि कर्म नहीं है, शारीरिक बल, आन्तरिक शक्तिरूप वीर्य, पौरुष और पराक्रम का स्वीकार नहीं है।जो होना है, वही होता है। - विश्व में प्रत्येक भाव जो होना होता है, वही होता है, और यह बात बिल्कुल सत्य है। जबकि, भगवान महावीर उत्थान आदि प्रत्येक भाव अनियत हैं, ऐसा कहते हैं, जो सत्य नहीं है।" देव की बातें सुनकर वह चुप नहीं रहे, क्योंकि वह तत्त्व के ज्ञाता थे, सच्चे श्रद्धालु थे। श्रावक कैसे हों ? अहिगयजीवाजीवे।' उसने जो प्रतिवाद दिया है, वह सूचक है। श्रावक तत्त्वज्ञ हों और प्रभु के वचनों के प्रति निष्ठावान हों, अवसर आने पर मार्ग-उन्मार्ग का भेद स्पष्ट करने की भी उसकी शक्ति होती है । मात्र क्रियाकांड अथवा अमुक जानकारीया दानादि कार्यों में ही धर्म का समावेश नहीं हो जाता है। बल्कि गम्भीर अर्थबोधके द्वारा तत्त्व का निर्णय तथा अतत्त्व का खंडन करने की कला भी आवश्यक है । आराधना से प्रभावना और ... प्रभुवीर के दश श्रावक ५१

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