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एक-एक प्रतिमा का स्वीकार और पालन बहुत ही कठिन है। प्रत्येक प्रतिमा के बाद की प्रतिमा को स्वीकार करने में पूर्व प्रतिमाओं का पालन अखण्ड रखना होता है। यह एक विशिष्ट प्रकार की साधना है। पहली दर्शन प्रतिमा में निरतिचार शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करना पड़ता है। उसके बाद व्रत प्रतिमा आदि में आगे बढ़ते हुए पूर्व की प्रतिमाओं का पालन करते हुए अन्त में श्रमणभूत प्रतिमा आती है, जिसमें श्रमण जैसा व्यवहार करना होता है। रजोहरण-मुंहपत्ती, पात्र में भिक्षा, लोच या शिखा मुण्डन करना होता है। उसके बाद या तो साधु बन जा शकते है यदि यह सम्भव न हो तो पुनः प्रतिमाओं की साधना या यथोचित आराधना कर शकते है। .. ____ आत्मशुद्धि की यह विशिष्ट साधना श्रावक जीवन का उच्च आदर्श है। शुभचिन्तन मनन और अनुष्ठान में ओतप्रोत रहकर की जानेवाली यह साधना खूब सात्विक महानुभाव ही कर सकते हैं। पूर्व में स्वीकार की गई सम्यक्त्व आदि की विशुद्धि इसमें अपेक्षित होती है।
श्रमणोपासक के सुरम्य जीवन का वांचन करते हुए साधुत्व की महानता की जो कल्पना आती है, वह अलौकिक है, मात्र नामान्तरवेषान्तर या देशान्तर करने से उसकी सफलता नहीं होती, यह सहजता से समझा जा सकता है।
जीवन का उत्कर्ष की साधना करनी हो तो मोह को मात करने के सिवाय कोई दूसरा उपाय नहीं है।
मोह के साथ रहकर धर्म की साधना सम्भव नहीं है। धर्म अर्थात् मोहको चेलेन्ज।
. प्रतिमाओं का संक्षिप्त स्वरूप १. दर्शन प्रतिमा :___दर्शन अर्थात् मिथ्यात्व के क्षयोपशमादि से उत्पन्न शुद्ध आत्म-परिणाम, जिसे श्रद्धा भी कहा जाता है।शुद्ध देवादि का स्वीकार जिसमें प्रधान होता है। शंका-कांक्षा-विचिकित्सा-परदर्शन प्रशंसा-परदर्शनी का परिचय आदि दोषों-अतिचारों से रहित होकर सम्यक्त्व का पालन करना होता है । इसका समय एक महीने का है। २. व्रत-प्रतिमा :
शुद्ध सम्यग्दर्शन के साथ अणुव्रतों का निर्दोष पालन करना पड़ता है।
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..प्रभुवीर के दश श्रावक
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