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आत्मशुद्धि के प्रकाश में जैनशासन कष्टमय धर्म की प्ररूपणा करके भी ममता से मुक्त होकर धर्मध्यान और क्रमशःशुक्लध्यान तक जाने का शुद्ध मार्ग है। काया की माया छड़े बिना दुर्ध्यान से बचना कठिन है । बाह्य आचार भी अभ्यन्तरशुद्धि का मार्ग होने के कारण साधु उसे कभी भी गौण नहीं करते। ... मात्र मनशुद्धि की बातें हवा में गोलीबारी करने जैसा है। ... आत्मशुद्धि के लिए ज्ञानियों ने कक्षा के अनुसार जो क्रम दिखाया हैं, विवेकी पुरुषों को उनका ही आचरण करना चाहिए।आनन्द श्रावक शास्त्रों में वर्णित प्रतिमाओं की अडिगहोकर आराधना करने लगा और अपनी काया को अत्यन्त कृश बना रखा था। जिसके कारण सारे शरीर की नसें स्पष्टदिखाई देने लगीं थीं। मांस-रक्त सूख गए थे। हड्डियाँ का ढांचा ही बचा हो, ऐसा हो गया था। परन्तु आत्मविशुद्धि के बलसे आत्मा पुष्टबनचुकी है। अतः एक दिन मध्यरात्रि को धर्मजागरिका में विचार करते है कि
"अब जब काया का यह हाल हो गया है तो अब भी जबतक मुझ में उत्थान है, माने
शारीरिक हिलचाल है,शरीर में शक्ति है, . प्रवृत्तिरूप कर्म है, आत्मतेज या उत्साहहै, पुरुषार्थ है, इष्टसाधन का पराक्रम है, चित्त की विशुद्धि के कारण दृढ़ विश्वासबल है,
भय या उद्वेग नहीं है और राग-द्वेष की परिणति को समझकर जागृति रूप में संवेग भाव है, तबतक और मेरे धर्मोपदेशक-धर्माचार्य श्रमण भगवान श्री महावीर देव गन्धहस्ती की भांति विचरण कर रहे हैं, तबतक अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लेना मेरे लिए श्रेयस्कर है।" आत्मशुद्धि के प्रकाश में ऐसा शोच कर उसे अमल में ला सके।गृहस्थवास में रहकर किया गया उनका यह पराक्रम कितना महान है? इनका नाप-तोल कैसे किया जाय?
प्रभुवीर के दश श्रावक....
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