Book Title: Pindvishuddhi Prakaranam
Author(s): Udaysinhsuri, Buddhisagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 8
________________ 1विचा उपोधाता विद्याभ्यास। ओ बोचार-विचार है वह (दसवैकालिकादि) सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत है। उसमें लिखा था " साधु को ४२ दोषों से लिदिल रहित होकर गृहस्थों के घरों से थोड़ा थोड़ा भोजन उसी प्रकार लाना चाहिए. जिस प्रकार मधुकर विभिन्न फूलो से रस को एकत्र यो18करता है-इस इति के द्वारा साधु की देहधारणा हो जाती है और किसी को का भी नहीं होता । साधुओं को एक स्थान पर पेवर निवास नहीं करना चाहिये और न सचित्त फूल-फलादि को स्पर्श करना चाहिये।" यह पढ़ते ही बालक जिनवल्लभ का मन | उद्वेलिच हो-वठा और उन्होंने सोचा "अहो! अन्य एव म कश्चिद् व्रताचारो, ऐन मुक्ती गम्यते, विसदृशस्त्वस्माकमेष | समाचार, स्फुटं दुर्गतिगर्तयां निपतता एतेन न कश्चिदाचारः।" अर्यात् “अहो ! जिससे मुक्ति प्राप्त होती है वह तो अन और आचार कोई दूसरा ही है, हमारा तो यह पाचार बिस्कुल विपरीत ही है ।हम तो स्पष्टतया ही दुर्गति के गड़े में | पड़े हुए हैं और हम बिल्कुल निराधार हैं।" अभयदेवसूरि से विद्याध्ययन .महापुरुषों के जीवन का यह एक व्यापक रहस्य है कि उनके मन में चठनेवाले महत्वपूर्ण संकल्पों की सिद्धि का मार्ग स्वतः ही तैयार हो जाता है। जिनवल्लभ के विषय में भी यही हुआ। उनके मन में साधु के सच्चे वताचार के लिये जो |सलेण्डा भी ससके लिये समुचित सापन स्वतः ही उपस्थित हो गये। जिनेश्वराचार्यने स्वयं सोचा कि जिनवल्लभ को सिद्धान्त| अन्यों की शिक्षा विजयाना यावयक है। सस समय सिद्धान्त-अन्यों के ज्ञान में भीषमयदेवसूरि की बड़ी प्रसिद्धि थी। उन्होंने 1 ना जिवछम को सही प्राचार्य के पास पाट मेश दिया। सिद्धान्त च प लिये यह बावश्यक है कि पढनेवाला HEॐद्र

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