Book Title: Pindvishuddhi Prakaranam
Author(s): Udaysinhsuri, Buddhisagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 6
________________ उपोद्घात चाल्यकार सहयोवि. दीक्षा। ही प्रशिष्य श्रीसुमति गणिने आचार्य जिनवल्लभत्रि का विस्तार से जीवन-वृत्त दे दिया है। इसीका आधार लेकर आचार्य का जीवन-चरित परवर्ती कई लेखकों ने लिखा और श्रीसुमविगणि के गुरुभ्राता श्रीजिनपालोपाध्याय ने 'खरतरगच्छालकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली ' में जिनंबड्डमरि का जो जीवन-चरित लिखा है, वह लगभग अभरशः सुमतिगणि द्वारा दिए हुए चरित से मिलता है, अन्तर है तो केवल इतना ही है कि सुमतिगणि की भाषा वालवारिक वर्णनों से परिपूर्ण है तो उपाध्यायजी की भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है। इसलिये इसी दृत्ति को आधार मानकर हम भी उनका संक्षेप में जीवन-चरित दे रहे हैं: चाल्गार और दीक्षा . बालक जिनवल्लम ने अपना पठन-पाठन आसिका( हांसी) नामक स्थान में एक चैत्यालय में प्रारंभ किया। कूर्चपुरीय जिनेश्वराचार्य ने इस बालक की प्रतिमा की सब से पहिले परख की । उन्होंने देखा कि बालक जिनवल्लभ अपने सभी सहपाठियों से अधिक मेधासम्पन्न है। इसी बीच में एक चमत्कार हुआ ! बालक जिनवल्लभ ने चैत्यालय के बाहर एक पत्र पाया, जिसमें सर्पाकर्षिणी' और 'सर्पमोचिनी ' नाम की दो विद्याएँ लिखी हुई थीं। बालकने दोनों को कण्ठस्थ कर लिया, परन्तु ज्योंही उसने सर्पाकर्षिणी विद्या को पढा त्योंही बड़े बड़े भयंकर सर्प उसकी ओर आने लगे; परन्तु वह बालक उस स्थान पर निर्भयता पूर्वक खड़ा रहा और उसने अनुमान किया कि यह इसी विद्या का प्रभाव है। जैसे ही उसने दूसरी विद्या का उच्चारण करना प्रारंभ किया वैसे ही सब सर्प भाग गये। इस घटना को सुनकर जिनेश्वराचार्य बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने समझ लिया | कि यह बालक कोई सात्विक गुणसंपन्न होनहार व्यक्ति हैं। अतः उन्होंने उसको शिष्य बनाने की मन में ठान ली। उन दिनों 9C % ॥

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