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विशुदि काइयो
विर
६ ॥
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गुरु आचार्य अमयदेवसूरि की कीर्ति और प्रतिष्ठा पर्याप्त थीं। अतः वहां के लोग उनका कोई विगांड़ तो न कर सके परन्तु फिर भी उन्हें कुछ द्रजनों का पर्याप्त विरोध सहन करना पड़ा। वहां के श्रावकों से उन्होंने रहने के लिये स्थान मांगा तो उत्तर मिला " यहां एक चण्डिकामठ है वहां यदि ठहरना चाहें तो ठहर जांय । " गणिजी उनके दुष्ट अभिप्राय को अच्छी तरह से समझते थे, परन्तु फिर भी वे देवगुरु के प्रसाद पर विश्वास रख के वहीं पर ठहर गये । चण्डिका देवी भी उनके ज्ञान, : ध्यान और अनुष्ठान से प्रसन्न हुई और उनकी सिद्धिदात्री बन गई। उनके पास प्रतिदिन अनेक दार्शनिक त्राह्मण आने लगे, इनमें से प्रत्येक निज निज शास्त्रों के विषय में उनसे वार्तालाप करता था और उनके उत्तर से सन्तोषलाभ करता था। धीरे धीरे उनकी -विद्वत्ता की प्रसिद्धि और उनके पाण्डित्य का प्रभाव व सुयश सर्वत्र फैल गया । जैन श्रावक भी उनकी ओर आकर्षित हुए और उनको विश्वास होने लगा कि यही एक साबु ओ सर्व संझयों को दूर करके हमारे हृदय के अन्धकार को दूर कर सकता है। गणिजी में जो बात सब से अधिक आकर्षण करने वाली थी वह यह थी कि उनकी कथनी ' और ' करणी ' एक थी। वे -विन सिंद्धांत वचनों की व्याख्या अपने वचनों में करते थे उन्हीं को वे अपने आचरण में भी उतारते थे ।
गणिजी के चमत्कार
चित्रकूट में रहते हुए जिनवल्लभगणिने कई चमत्कारपूर्ण कार्य किये। इनका साधारण नाम का एक भक्त-नायक एक बार • उनके पास आया । वह चाहता था कि अपने जीवन में परिग्रह की एक सीमा निर्धारित करलें । इसका संकल्प लेने के लिये वह उनके पास आया हो उन्होंने पूछा कि तुम अपने सर्व संमह की सीमा किरानी देखना चाहते हो। साभार भाव का
उपोषात । गणिजी के [ चमत्कार ।