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प्रतिबोध
प्रतिष्ठाएं।
॥९॥
आहो। यो बजेयुः कचिदपि समये दैवयोगात् तदानीं न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्गवं स्यात ॥१॥ सिनिय श्लोक वृद्ध ब्राह्मणने पढ़ा और अन्य कुपित हुए प्राह्मणों को समझा बुझाकर शांत किया। टीकाइयो
प्रतिबोध और प्रतिष्ठाएँ पेठम्
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनवल्लभगणिने द्रोह, दर्प और विरोध के सामने कभी शिर नहीं झुकाया, साथ ही वे यह भी समझते थे कि मनुष्य कितना निरीह प्राणी है जो लोभादि का शिकार सहज ही में हो जाता है। ऐसे लोगों पर वे क्रोध नहीं करते थे, क्योंकि वे दया के पात्र होते हैं। इस प्रकार के लोग भी उनके पास आते थे, तो वे उनको आध्यात्मिक रोगी समझ कर उनकी चिकित्सा-विधान किया करते थे, शर्त इस बात की थी कि उस व्यक्ति में पूर्ण श्रद्धा होनी आवश्यक थी। एक वार गणदेव नाम का एक भाबक उनके पास आया, उसे स्वर्ण(सोना) सिद्धि की आवश्यकता थी। उसने सुन रखा था कि जिनवल्लभजी के पास स्वर्णसिद्धि है, वह उनके स्थान पर वारंवार आने लगा । गणिजी को उसका यह भाव ज्ञात हो गया, उन्होंने लिप्सा की लपट से दग्ध होते हुये उसके हृदय को परख लिया, अतः उन्होंने ऐसे उपदेशामृत की वृष्टि करना प्रारंभ किया कि यह सेठ स्वार्थी से धर्मार्थी हो गया । तब गणिजीने पूछा भद्र! कहो क्या तुम्हें स्वर्गसिद्धि की आवश्यकता है ? तो, उसका
यही उत्तर वा कि मैं तो श्राद्ध-धर्म का ही व्यवहार करना चाहता हूं। यही सेठ बाद में इनके लिखित 'द्वादशकुलक' नामक Pउपदेशों को लेकर बाम्जन( वागढ़) प्रदेश में गया और उनका प्रचार करके जिनबल्लभगणि की कीर्तिपताका फैलाई । इसके
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