Book Title: Pindvishuddhi Prakaranam
Author(s): Udaysinhsuri, Buddhisagar
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 14
________________ वि . चित्रकूट ममन। पेतम् IC आचार्य श्रमयदेवसूरि मी हृदय में अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा कि मैंने इसको जैसा योग्य समझा था वैसा ही मित्र के मन में यह रद्ध विश्वास था कि जिनवल्लभ ही हमारा उत्तराधिकारी( पट्टधर ) होने के सर्वथा योग्य है । " परन्तु किाद्वयो क्या पसको समाज स्वीकार करेगा ? वह एक चैत्यवासी आचार्य का शिष्य या, पर इससे क्या ? क्या पक से पङ्कज उत्पन्न नहीं होता ?" इस प्रकार सोचते हुए भी अभयदेवसूरि जैसे प्रभावशाली आचार्य-शिरोमणि भी जिस बात को न्याय, धर्म और समाजहित की दृष्टि से सर्वथा उचित समझते थे, उसको अन्धविश्वासी समाज का विरोध सहन करके भी करते । संभवतः ५॥ वे भी यही सोचकर संतुष्ट हो गए कि " यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं, न करणीयं नाचरणीयम् " । अतः आचार्यश्री के मन की बात मन में ही रह गई और उन्होंने समाज के सामने मत्था टेककर अपनी अन्तरात्मा की पुकार के विरुद्ध अपने दूसरे शिष्य वर्धमान को आचार्य-पद देकर जिनवल्लभगणि को उपसम्पदा प्रदान की और सर्वत्र विचरण करनेकी अनुमति प्रदान की । तत्पश्चात् आचार्य अभयदेवसूरि के कथनानुसार प्रसनचन्द्राचार्य की भाज्ञासे उनके पश्चात् देवभद्राचार्यने इनको पट्टधर बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु जब जिनबल्लभगणि को यह पद प्राप्त हुआ, तो उनके जीवन का सूर्य अस्त होने वाला था। चित्रकूट गमन उपसम्पदा ग्रहण करके वे कुछ दिन गुर्जरप्रदेश में विहार करते रहे, परन्तु यहां उन्हें सुविहित सिद्धान्त-प्रचार में वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी कि वे चाहते थे । उस समय गुजरात चैत्यवासियों का सब से बड़ा गढ़ था; यहां पर जिनवलमगणि जैसे कान्तिकारी विचारक, कटु मालोचक और निर्भय बका की दाल गलना सरळ न था, यह शो अमयदेवाचार्य जैसे मुलझे । CRACKAGRA S

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