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सतवण्णासो संधि
[२] विभीषण, जो परस्त्री और परधनका अपहरण नहीं करता, मन में यह सोचकर, दशाननराज के सामने इस प्रकार मुड़ा मानो दोषसमूहके सामने गुणसमूह मुड़ा हो ! उसने कहा, "हे धरती के आभूषण और योद्धाओंके संहारक रावण, तुम दुष्टों में दुष्ट हो, और सज्जनोंमें सज्जन रात्रण, तुम मेरे कथनपर ध्यान क्यों नहीं देते, आनन्द' करते हुए अपने स्जनोंको क्यों नहीं देखते ? घरसहित अपने नगरकी क्या तुम्हें अब इच्छा नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे ऊपर वज्र आकर गिरे ? क्यों तुम अपनी सेनाकी बलि, चारों दिशाओं में बिखेरना चाहते हो ? ईर्ष्याकी आग तुम अपने हृदयमें क्यों रखना चाहते हो ? रामरूपी सिंहको तुम क्यों छेड़ते हो ? विकी बेल जान-बूझ कर तुम क्यों खाना चाहते हो ? पहाड़ के समान अपने महान बड़प्पनको खण्डखण्ड क्यों करना चाहते हो ? अपने चरित्र, शील और व्रतको क्यों छोड़ना चाहते हो ? अपने विगड़ते हुए कामको क्यों नहीं बना लेते, तीसरे नरककी आयु क्यों बाँध रहे हो ? एक तो इसमें अपकीर्ति है, दूसरे अनेक अमंगल भी हैं ! इस लिए तुम्हारे लिए एक ही लाभदायक बात है, और वह यह कि तुम जानकीको अभी भी वापस कर दो।" यह सुनकर दशाननने कहा, " हे भाई, सुन मैं जानता हूँ, देख रहा हूँ, और मुझे नरककी आशंका भी है। फिर भी शरीरमें बसने वाली पाँचों इन्द्रियोंको जीत सकना मेरे लिए सम्भव नहीं" || १-११॥
[ ३ ] जो जनोंके मन और नेत्रोंके लिए अत्यन्त प्रिय था, शत्रु राजाओंके लिए इन्द्रके समान था, जो दुर्द्धर भूधरों ( राजा और पहाड़ ) को उठा सकता था, सैन्या धकापेल मचा सकता था, दुर्जन लोगोंके मनको दहला देता, बड़े-बड़े