________________
योजन वधारी तेटल गमन करे तो क्षेत्रवृद्धि नामनो चौथो *अतिचार लागे छे. १. पूर्वादिक दिशामा सो आदिक योजन सुधी जवानो नियम राख्यो होय, तेने एकदा कार्यनी व्याकुळताने लीधे के प्रमादने लीधे के बुद्धि गुम थवाने लौधे के एवा कोइ कारणने लीधे जतां विचार थयो के 'मारे पचास योजननो नियम छे ? के सो योजननो नियम छे ?' आ रीते संदेह थाय तो पचास योजनथी वधारे गमन कर नहीं, करे तो अतिचार लागे अने सो योजनथी अधिक गमन करे तो व्रतनो भंग ज थाय. आ xस्मृत्यतर्धा नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आ अतिचारोनुं अहीं प्रतिक्रमण छे: १९.
सातमा व्रतना अतिचार मू-मजम्मि अ मंसम्मि अ, पुप्फे अ फले अ गंधमल्ले । उवमोगपरीभोगे, बीअम्मि गुणव्वए निंदे ॥२०॥
शब्दार्थ:मज्जंमि अ-मदिरा
पुप्फे अ-फूल मंसंमि अ-मांस
. फले अ-फळ
* इच्छित दिशामां प्रमाण करेला योजनथी वधारे गमन थयु माटे भंग थयो अने सामसामी बन्ने दिशाना योजनने आश्री संख्यामां वधारो न थवाथी भंग थयो नहीं तेथी आ अतिचार कहेवाय छे.
x आ अतिचार सर्व व्रतोमां संभवे छे. परंतु अहीं पांचनी संख्याने पूर्ण करवा माटे अहीं लख्यो छे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org