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वार अनंत, तो पण नहु पामे भव अंत; इम जाणी समकितआदरो,समकित आदर किरिया करो॥३४॥ समकित किरिया बे जो मिले, तो भव भमवाना भय टले; समकित सूधा दंसण नाण, देवगुरु धर्म विषे ते प्रमाण ॥ ३५ ॥
देव एक अरिहंत विदित, रागद्वेष वेरी जिण जीत; दोष अढार रहित हितकार, त्रिभुवन जनने तारणहार ॥३६॥ नाम ठवण द्रव्य भाव विचार, - अनन्तीवार घणा लांबा वखत सुधी चारित्र पाळवा छतां आ संसारनो पार पमातो नथी, एम जाणी समकित ग्रहण कर जोइए अने समकित प्राप्त करवा माटे योग्य-क्रियाओ करवी जोइए. ३४ ।
समकित भने क्रिया ए बन्नेवाना जो मळे तो भवभ्रमणानो भय दूर थाय छे, अने समकित सहित दर्शन, ज्ञान, होय तो देव-गुरु अने धर्मने विषे प्रमाणभूत गणाय छे. ३५
राग अने द्वेष रूप बे शत्रु जेओए जीत्या छे, अने अढार दोषो रहित छे अने त्रण भुवननु हित करनारा तथा रक्षण करनारा छे, एवा अरिहंत देवने ज एक देव तरीके जाणवा. ३६
नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव आ चार निक्षेपा विचारवा जोइए, तेनुं
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