Book Title: Panch Pratikramana Sarth
Author(s): Gokaldas Mangaldas Shah
Publisher: Shah Gokaldas Mangaldas

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ वरखिंखिणिनेउरसतिलयवलयविभूसणिआहिं, रहकरचडर + मणोहर सुंदरदंसणिआहिं ||२७|| चित्तक्खरा ॥ देवसुंदरी हि पायवदिआहि वंदिआ य जस्स ते सुविक्रमा कमा, अप्पणो निडालएहि मंडगोड्डण पगारएहि केहि केहि वी । अवंगतिलय पत्तलेहनामहि चिल्लएहि संगयंग याहि, भत्तिसन्निविठ्ठवंदणागयाहिँ हुंति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥ २८॥ " ॥ नारायओ ॥ ३८४ तमहं जिणचंद, अजिअं जिअमोहं । धुयसव्वकिलेसं, पयओ पणमामि ॥ २९ ॥ नंदिअयं ॥ शब्दार्थः अबरंतर विआरणिआहिं-आकाशना अंतराले विचरनारी ललिअहंसव हुगामिणिआहिंमनोहर हंसीना जेवुं गमन करनारी पीणसोणिथण-पुष्ट एवा कटीतट अने स्तनवडे सालिणिआहिं- शोभती सकलकमलदल - संपूर्ण कमळना पत्र जेवा लोअणिआहिं- लोचनवाळी Jain Education International पीणनिरंतर - पुष्ट अने आंतरा रहित - गाढ एवा थणभर - स्तनना भारखंडे विणमिअ-नमेली छे गायलयाहिं - गात्रलता - शरीर रूपी लता जेमनी एवी मणिकंचण - मणि अने सुवर्णनी पसिढिलमेहल - शिथिल एवी मेख ळावडे (कंदोरो) सोहिअ - शोभायमान छे + मनोधर - मनने अन्यत्र गमननो निषेध करवाथी मनने अटकावनार एवों पण अर्थ थाय छे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455