Book Title: Panch Pratikramana Sarth
Author(s): Gokaldas Mangaldas Shah
Publisher: Shah Gokaldas Mangaldas

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Page 423
________________ ४०१ पछी जयवीयराय कही ऋण खमासमणे आचार्य० उपाध्याय० सर्व साधु वांदी, खमासमण दई इच्छाकारेण० देवसिप्रायच्छित्त अन्नत्थ कही चार लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, प्रगट लोगस्स कही; पछी सज्झाय माटे चार खमासमणा दइ, नवकार गणा पख्खी सज्झाय कहेवी. ४७ अथ पक्खि सज्झाय ॥ नमिऊण तिलोअ गुरुं, लोयालोयप्पयासअं वीरं । संबोह सत्तरि महं, रएमि उद्धार गाहाहिं ॥ १ ॥ अर्थ:-त्रण लोकनां गुरु अने लोकालोक प्रकाशक श्री महावीर देवने नमस्कार करीने संबोधसित्तरी ( नामा ग्रंथ ) उधृत गाथाओ वडे हुं रचुं . १ सेयंबरो अ आसंबरो अ, बुद्धो अ अहव अन्नो वा । समभाव भाविअप्पा, लहेइ मुक्खं न संदेहो ॥ २ ॥ अर्थः — श्वेताम्बर - दिगंबर - बौद्ध अथवा अन्य कोइ पण दर्शनी जो समभावथी वासित ( राग द्वेष रहित ) आत्मा होय तो ते 'मोक्ष मेळवे छे एमां संशय नथी. २ अहदस दोसरहिओ, देवो धम्मोवि निउण दयसहिओ । सुगुरु वि बंभयारि, आरंभ परिग्गहा विरओ ॥ ३ ॥ अर्थ — अढार दोष रहित देव, दया सहित श्रेष्ट धर्म अने आरंभ परिग्रह रहित ब्रह्मचारि गुरु. ३ अन्ना कोह मय माण लोह, माया रइअ अरइअ । निद्दा सोग अलिअवयण चोरिया मच्छर भयाय ॥४॥ २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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