Book Title: Panch Pratikramana Sarth
Author(s): Gokaldas Mangaldas Shah
Publisher: Shah Gokaldas Mangaldas

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Page 438
________________ ४१६ अरिहंत सिद्ध साहू केवलि कहिओ सुहावहो धम्मो ॥ एए चउरो चउगइ हरणो सरणं लहइ धन्नो || २ ॥ अर्थ :- अरिहंत - सिद्ध-साधु अने केवळी भगवन्ते कहेलो सुखकारी धर्म ए चार, नरकादि चार गतिना हरनार छे. तेनुं शरण जे धन्य पुरुष होय ते पामे छें. २ पाणाइवाय मलियं चोरिक्कं मेहुणं दविणमृच्छं । कोहं माणं माया लोहं पिज्जं तहा दोसं ॥ ३ ॥ अर्थः-- प्राणातिपात - पृषावाद - चोरी - मैथुन - द्रव्यनी मूर्च्छा (परिग्रह ) - कोध - मान - माया - लोभ - प्रेम तथा द्वेष. ३ कलहं अभक्खाणं पेसुन्नं रइअरइ समाऊत्तं । परपरिवायं माया मोसं मिच्छत्त सलं च ॥ ४ ॥ अर्थ:-- कलह ( कजीओ, जुहुं आळ, चाडी, प्रीति - अप्रीतियुक्त परनिंदा, माया ( कपट ) युक्त मृषा भाषण अने मिथ्यात्वशल्य. ४ वोसिरिसु इमाई मुक्खमग्ग संसग्ग विग्ध भूयाई ॥ दुग्गर निबंधणाई अठ्ठारस पावठाणाई ।। ५ । अर्थ:-- आ अढार पापस्थानको मोक्ष मार्गनी प्राप्तिमां विघ्नभूत छे अने दुर्गतिना कारण छे, माटे तेमनो त्याग करवो. ( आ पछी सातलाख० कहेवा ते पछी )+ एगोहं नत्थि मे कोई, नाह मन्नस्स कस्सइ | एवं अदीणमणसो अप्पाण मणु सासइ ॥ १ ॥ + पण अठार पापस्थानक तथा चार विकथा न कहेवी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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