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३४५ शक्ति आलस मन आण; न कों जतन रतन आदरी, जाणे नाख्यो कांकर करी ॥ १३५॥ अभ्यंतर तपतणा प्रकार, सुगुरु साखे आलोयण सार; काढी शल्य न तप पडिवज्यो, वडातणो विनय में तज्यो ॥ १३६ ॥ बालगिलानने तपसीतणो, वेयावच्च न कीधो घणो; वायण पुच्छण परियट्ठणा, धम्मकहा ने अणुपेहणा ॥ १३७ ॥ पंचभेद सज्झाय नहु कों, ध्यानरंग हियडे नहु धर्यो; यथाशक्ति काउसग नहु कीध, मणुय जनमर्नु नहु फल लीध ॥ १३८॥ सूक्षम बादर आ छ भेद बाह्य तपना छे. छती शक्तिए मनमां आळस करी मन उपर न लीधुं अथवा आवा हाथमां आवेला रत्ननुं रक्षण न कयु पण कांकरो जाणीज फेंकी दीधुं. १३५. ... हवे अभ्यंतर तपना भेदो गुरु साक्षीए आलोवे छे. माया, निदान अने मिथ्यात्व, आ त्रण शल्य रहितपणे तप न को, मोटानो पिनय छोडी दीघो. १३६ बाळक के ग्लान के तपस्वी तणो खूब वेयावच्च न कर्यो, वाचना, पृच्छना, पुनरावर्तन, धर्मकथा तथा अनुप्रेक्ष्या (१३७) आ पांच रीते स्वाध्याय न कीघो तथा हृदयमां ध्यान न कयु, छती शक्तिए काउस्सग्ग न कों, आ रीते मनुष्य जन्मनुं फळ लीधुं नही. १३८.
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