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की पत्रिका 'विद्यापीठ' के संवत् १९९३ के आश्विन-पौष अंक में निकला था। एक दूसरा पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' के चतुर्थ परिशिष्ट के रूप में है। सरसरी तौर पर यहाँ पालि साहित्य के विकास को दिखाने की चेष्टा की गई है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, भदन्त आनन्द कौसल्यायन और भिक्षु जगदीश काश्यप के अनुवादों की प्रस्तावनाओं में उन उन ग्रन्थों सम्बन्धी विवरणों के साथ-साथ सामान्यतः पालि साहित्य सम्बन्धी परिचयात्मक विवरण भी कहीं-कहीं दे दिया गया है। विशेषतः महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 'बुद्ध-चर्या', 'दीघ-निकाय', 'विनय-पिटक' एवं 'अभिधर्म-कोश', आदि की भूमिकाएँ, भदन्त आनन्द कौसल्यायन की 'जातक' (प्रथम खण्ड) और 'महावंश' की भूमिकाएँ और भिक्षु जगदीश काश्यप को 'उदान' और 'पालि महाव्याकरण' की भूमिकाएँ इस दृष्टि से देखने योग्य हैं। भदन्त श्री शान्ति भिक्ष जी के भी पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध इधर 'विश्व भारती पत्रिका' और 'विशाल भारत' में निकलते रहे हैं। 'धर्मदूत' में भी पालि साहित्य सम्बन्धी निबन्ध त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित जी, भिक्षु शीलभद्र जी, भिक्षु धर्मरत्नजी, तथा अन्य अनेक वौद्ध विद्वानों के पालि साहित्य सम्बन्धी लेख प्रायः निकलते रहते है । इधर बौद्ध धर्म और दर्शन सम्बन्धी कुछ विवेचनात्मक ग्रन्थ भी हिन्दी में निकले हैं । उनमें भी यथास्थान पालि साहित्य का कुछ विवरण है । पर उनमें कोई ऐसी मौलिकता या विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती जिससे उसे विशिष्ट महत्त्व दिया जा सके। अतः प्रकीर्ण निबन्धों, प्रस्तावनाओं और गौण संक्षिप्त विवरणों के अतिरिक्त पालि साहित्य के इतिहास पर हिन्दी में अभी कुछ नहीं लिखा गया है। ___ हाँ, अंग्रेजी में पालि साहित्य के इतिहास पर कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। मेबिल बोड का 'दि पालि लिटरेचर ऑव बरमा' (लन्दन, १९०९) और जी० पी० मललसेकर का 'दि पालि लिटरेचर ऑव सिलोन' (लन्दन, १९२८) क्रमशः बरमा और लंका के पालि साहित्य पर अच्छे विवेचनात्मक ग्रन्थ हैं। डा० विन्टरनित्ज़ ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'हिस्ट्री ऑव इन्डियन लिटरेचर' (कलकत्ता, १९२३) को दूसरी जिल्द (पृष्ठ १-४२३) में पालि साहित्य का संक्षिप्त किन्तु