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न्याय-दीपिका
जान पड़ता है। और यह अन्वयं भी है, क्योंकि इसमें प्रमाणनयात्मक न्याय का प्रकाशन किया गया है । अतः न्यायदीपिकाका नामकरण भी अपना वैशिष्ठ्य स्थापित करता है और वह उसके अनुरूप है।
(ग) भाषा
यद्यपि न्यायग्रन्थोंकी भाषा अधिकांशतः दुरूह और गम्भीर होती है, जटिलताके कारण उनमें साधारणबुद्धियोंका प्रवेश सम्भव नहीं होता। पर न्यायदीपिकाकारकी यह कृति न दुरूह है और न गम्भीर एवं जटिल है । प्रत्युत इसकी भाषा अत्यन्त प्रसन्न, सरल और बिना किसी कठिनाई के प्रथबोध करानेवाली है। यह बात भी नहीं कि प्रत्यकार वैसी रचना कर नहीं सकते थे, किन्तु उनका विशुद्ध लक्ष्य प्रकलङ्कादि रचित उन गम्भीर र दुरगाह पानि या या अन्याय मजाकोभी प्रवेश करानेका था । इस बातको स्वयं धर्मभूषणजीने ही बड़े स्पष्ट और प्राञ्जल शब्दोंमें-मङ्गलाचरण पद्य तथा प्रकरणारम्भके प्रस्तावना वाक्यों में कहा है" । भाषाके सौष्ठपसे समूचे ग्रन्यकी रचना भी प्रशस्त एवं हर हो गई है।
(घ) रचना-शैली
भारतीय न्याय-अन्योंकी पोर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो उनकी रचना हमें तीन प्रकारको उपलब्ध होती है:-सूत्रात्मक,२व्याख्यात्मक भौर ३ प्रकरणात्मक । जो ग्रन्थ संक्षेपमें गूढ़ अल्पाक्षर मौर सिदान्ततः मूलके प्रतिपादक हैं वे सूत्रात्मक हैं । जैसे-वैशेषिकदर्शनसूत्र,न्यायमूत्र, परीक्षामुखसूत्र मादि । और जो किसी गव पद्य या दोनोंल्प मूलका व्याख्यान (विवरण, टीका, वृत्ति) रूप हैं वे व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रशस्त
१ देखो, न्यायदीपिका पृ० १, ४, ५ ।