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श्री नवकार महामंत्र - कल्प
जांय तो व्यञ्जनकी शोभा होती है, और स्वराअक्षर चैतन्य रूप होने से खण्डित नही होते और अपने रुपमें अक्षय रहते हैं, इस सिद्धान्तकी सत्यताका यह प्रमाण है कि क, च, ट, त प, वर्गादिका उच्चार करते हैं तो व्यञ्जनका शीघ्र ही नाश हो जाता और तत्काल स्वरका उच्चारण होने लगता है । अतः सिद्ध हुवा कि व्यञ्जन अक्षर उच्चार होते ही विलय हो जाते हैं, और स्वर अक्षयरूप रह जाते हैं, तदनुसार अङ्क गणित में भी (९) नवाङ्क अक्षय रूप है इसका क्षय कदापि नही हो सकता, यह अपने स्वरुपको नही छोड़ता और कायम रहता है । कायम रहता है इतना ही नही किन्तु जब दूसरे अङ्कोंके साथ मिल जाता है तो उनमें रमण करते हुवे भी लिप्त न होकर अपने स्वरूपमें अलग ही रहकर अन्तिम निज स्वरूपमें निकल आता है, इसी लिए इसकी शोभा विशेष है ।
दूसरे अङ्क एक, दो, तीन, चार, पांच, छे, सात और आठ तकके हैं यह निज स्वरूपमें नही रहते और खण्डित होते जाते हैं । जब एक दूसरेके साथ अंक मिलता है तब भी निज स्वरुपमें नही रह