Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 11
________________ [10] ज्ञान रूपी समुद्र में अवगाहन कर लिया उसको मोक्ष रूपी लक्ष्मी का अतुल आनन्द प्राप्त होने ही वाला है। इस सूत्र की प्रथम गाथा में तीर्थंकर स्तुति, दूसरी, तीसरी गाथा में महावीर स्तुति गाथा ४ से १९ तक संघ को नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और मेरु की उपमा से उपमानित कर ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप सम्पन्न गुणाकर, गुण समुद्र संघ की स्तुति की गई है। इसके पश्चात् गाथा २०-२१ में वर्तमान अवसर्पिणी के भरत क्षेत्रीय चौबीस तीर्थंकरों की आवलिका का प्रतिपादन, गाथा २२-२३ गणधर आवलिका में ग्यारह गणधरों का, गाथा २४ में र्थंकर प्रभ द्वारा उपदिष्ट और उनके गणधरों द्वारा ग्रथित प्रवचन की स्तति अन्तिम २४ से ५० गाथा में उन २७ स्थविर भगवंतों की आवलिका का प्रतिपादन किया है, जिन्होंने प्रभु महावीर के बाद भव्य जीवों के उपकार के लिए उस परम्परा को इस नन्दी सूत्र के रचयिता आचार्य श्री देववाचक तक पहुँचाया है। इस प्रकार नंदी सूत्र की शुरूआत की पचास गाथाएं स्तुति रूप है। तत्पश्चात् पांच ज्ञान के प्ररूपक नन्दी सूत्र का आरम्भ होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करने के कौन योग्य और कौन अयोग्य है उसके लिए सूत्रकार ने चौदह उपमाओं की संग्रहणी गाथा दी है। इसमें पांच ज्ञानों के भेद प्रभेदों को विस्तार से समझाया है। साथ ही चार बुद्धि (औत्पात्तिकी के २७, वैनयिकी के १५, कर्मजा के १२ एवं पारिणामिकी के २१) के स्वरूप को ७५ दृष्टान्तों के द्वारा समझाया गया है। अन्त में सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत का स्वरूप, सम्यक्श्रुत में तीर्थंकर प्रणीत आगम तथा मिथ्याश्रुत में अन्य ग्रन्थों के नाम दिये हैं। उपसंहार में विराधना का कुफल और आराधना का सुफल बतलाया गया है। नंदी सूत्र को आनंदरूप मानकर इसका स्वाध्याय संत सती ही नहीं प्रत्युत अनेक श्रावक श्राविकाएं भी नित्य करने की परिपाटी हमारे समाज में प्रचलित है। यदि मूल के साथ भाव भी हृदयंगम होता रहे तो विशेष लाभ का कारण है। अतएव प्रस्तुत सूत्र विवेचन युक्त प्रकाशित किया जा रहा है। इसका अनुवाद एवं विवेचन स्व० आत्मार्थी श्री केवलमुनि जी म. सा. के सुशिष्य एवं तपस्वी मुनिराज श्री लालचन्दजी म. सा. के अंतेवासी पण्डित मुनि श्री पारसमुनि जी म. सा. ने किया, जो प्रज्ञा सम्पन्न संत हैं एवं चार बुद्धि की जो कथाएं दी गई वे पण्डित रत्न श्री घेवरचन्दजी बांटिया द्वारा लिखी हुई है, पूर्व में इसका प्रकाशन संघ द्वारा छोटी साईज में हो रखा था। वह काफी समय से अप्राप्य है। अब संघ द्वारा आगम बत्तीसी प्रकाशित हो रही है जिसके अर्न्तगत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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