Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 10
________________ [9] ********************************************* ************************************** और प्रत्याख्यान नहीं किया है) सक्रिय (कायिकी आदि कर्म-बन्ध की क्रियाओं से युक्त) संवर रहित, एकान्तदण्ड (हिंसा करने वाला) और एकान्तै अज्ञानी है । सत्य गौतम ! जो पुरुष जीव, अजीव, त्रस और स्थावर को जानता है, उसको ऐसा ज्ञान है, तो उसका कहना कि - 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' है। उसका प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं । मैंने सर्व प्राण यावत् सब सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' इस प्रकार बोलने वाला वह सुप्रत्याख्यानी, सत्यभाषा बोलता है, मृषा भाषा नहीं बोलता । इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्वप्राण यावत् सर्व तत्त्वों में तीन करण तीन योग से संयत, विरत, पाप-कर्म का त्यागी, प्रत्याख्यानी, अक्रिय (कर्म बन्ध की क्रियाओं से रहित) संवरयुक्त और एकान्त पंडित है । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है । यही बात दशवैक्रालिक सूत्र के चौथे अध्ययन गाथा नं० १२-१३ में बतलाई गई है। जो जीवेविण याणेइ, अजीवे वि ण याणेइ । जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो णाहीइ संजमं ॥१२॥ भावार्थ - जो जीव के स्वरूप को नहीं जानता और अजीव के स्वरूप को भी नहीं जानता । इस प्रकार जीवाजीव के स्वरूप को नहीं जानने वाला वह साधक संयम को कैसे जानेगा अर्थात् नहीं जान सकता। 'जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणेइ । Jain Education International - जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु णाहीइ संजमं ॥१३॥ भावार्थ - जो जीव का स्वरूप जानता है तथा अजीव का स्वरूप भी जानता है । इस प्रकार जीव और अजीव के स्वरूप को जानने वाला वह साधक निश्चय ही संयम के स्वरूप को जान सकेगा। श्रुतज्ञान से ही जीवादि के स्वरूप का सम्यक् बोध होता है, इसके बिना निर्दोष चारित्र धर्म का पालन संभव नहीं । इसीलिए प्रभु ने चारित्र धर्म से पूर्व श्रुत धर्म को स्थान दिया है। नन्दी शब्द आनन्द का द्योतक है। इसकी मूल और मुख्य सामग्री पांच ज्ञान रूप है। जिसने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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