Book Title: Nandi Sutra
Author(s): Parasmuni
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 9
________________ [8] ******* एवं खलु से मुसावाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं असंजय-विरयपडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, सकिरिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले यावि भवइ। जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स एवं अभिसमण्णागयं भवइ-इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवइ, णो दुपच्चक्खायं भवइ। एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणे सच्चं भासं भासइ, णो मोसं भासं भासइ। एवं खलु से सच्चवाई सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंतपंडिए यावि भवइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जाव सिय दुपच्चक्खायं भवइ। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! 'मैंने सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है, या दुष्प्रत्याख्यान होता है? ____ उत्तर - हे गौतम! 'मैंने सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' - इस प्रकार बोलने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। प्रश्न - हे भगवन्! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि सभी प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का त्याग करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। उत्तर - हे गौतम ! 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है-इस प्रकार बोलने वाले पुरुष को यदि इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है।' 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' - इस प्रकार बोलता हुआ वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष सत्यभाषा नहीं बोलता, किन्तु असत्य भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी सर्वप्राण यावत् सर्व सत्त्वों में तीन करण, तीन योग से असंयत (संयम रहित) अविरत (विरति रहित) पापकर्म का अत्यागी एवं अप्रत्याख्यानी (जिसने पापकर्म का त्याग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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