Book Title: Nandanvan Kalpataru 2005 00 SrNo 14
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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यदैहिकफलप्राप्तिहेतवे कृतनिश्चया । लोकरञ्जनवृत्त्यर्थं राजसी भक्तिरुच्यते ।।५।। द्विषतां तत्प्र(द्विषदापत्प्र)तीकारभिदे(कृते) या कृतमत्सरम् । दृढाशयं(यात्) विधीयेत सा भक्तिस्तामसी भवेत् ।।६।। रजस्तमोमयी भक्तिः सुप्रापा सर्वदेहिनाम् । दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः शिवावधि फलावहा ।।७।। उत्तमा सात्त्विकी भक्तिर्मध्यमा राजसी पुनः । जघन्या तामसी ज्ञेया नाऽऽदृता तत्त्ववेदिभिः ॥८।।
(इति विचारामृतसङ्ग्रहे श्लो० १-४) अर्हद्भक्तिफलमेवम्
भत्तीए जिणवराणं खिज्जति पुव्वसंचिता कम्मा ।
आयरियनमुक्कारेण विज्जामंताइ सिझंति ॥१॥ इति साध्वी अर्हद्भक्तिः । वस्तुतोऽभिलषितार्थसाधकत्वात्, आरोग्यबोधिलाभादेरपि पावर तन्निर्वर्त्यत्वात् । तथा चाऽऽह
भत्तीइ जिणवराणं परमाइ खीणपिज्जदोसाणं । आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ।।१।।
(इत्यावश्यकचतुर्विंशतिस्तवाध्ययननिर्युक्तौ) अत्र तामस्या एव भक्तेरनादरणीयत्वोक्त्या तथाविधावस्थाकाले परम्परया सात्त्विकीहेतुतया मोक्षप्रयोजकत्वेन जिनोक्तमिति सद्बुद्ध्या क्रियमाणा किञ्चित्फलोद्देशवत्यपि राजसी भक्तिः श्रीपालादीनामिव विधेयत्वेनैव ध्वनिता । उत्तमाऽनुसात्विक्येव सैव मोक्षप्रापिका।
भक्तिः सेवायाम् । 'भक्तिः विनयः सेवे'ति नवमषोडशकविवरणे।
भक्तिरभिमुखगमनासनप्रदानपर्युपास्त्यञ्जलिबन्धानुव्रजानादिलक्षणे'ति प्रवचनसारोद्धारैकशताष्टचत्वारिंशद्वारवृत्तौ ।
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